26/11 मुंबई हमले को दो साल हो गये। हर साल हमले की याद में श्रद्धांजलि देना त्योहार सा हो गया है। लोग इकट्ठा होते है और शहीदों को याद करते है। उनकी बहादुरी को सलाम करते हैं। लेकिन क्या इतने भर से शहीदों को शांति मिल गई। सच कहे तो हमें क्या पता कि मृत्यु के बाद किसे शांति मिली किसे नहीं। लेकिन सवाल है कि शहीदों के नाम पर क्या हमारे दिलों को शांति मिली। नहीं....नहीं मिली। मारे तो गये थे सारे आतंकी लेकिन पकड़े गए एकमात्र ज़िंदा आंतकी आमिर अजमल कसाब की मृत्यु से हम भारतीयों को दिल को सुकून कब मिलेगा। फांसी की सज़ा मिले तो उसे काफी दिन हो गये। केस चलता जा रहा है। मुझे तो लगता है कि वो अपनी प्राकृतिक मौत तो मरेगा ही साथ ही हमारे देश के करोड़ों रुपये भी खा लेगा। बहुत हुआ तो कोई हवाई जहाज अगवा करके उसे छुड़वाने की अपील करवा लेगा। लेकिन फिर भी हमारे देश के रुपये तो खाकर ही जाएगा।
सवाल है कि आखिर कसाब जैसे दो टके के आतंकी को शाही ट्रीटमेंट क्यों दिया जा रहा है। इसके बारे में ज्यादातर लोग नहीं सोचते हैं। कसाब को अपने अंडे की तरह सेह रहे है। क्योंकि उसके दम पर ही हमे दुनिया को साबित कर सकते है कि पाकिस्तान ही आतंकी गतिविधियों का अड्डा है। मुंबई हमले को तरजीह इसलिये दी जा रही है क्योंकि इस हमले में विदेशी भी मारे गये थे। जिसकी वजह से इस मामले में पुरे विश्व की नजर इसके केस पर टिकी है। इसी को भुनाने के लिये भारत सरकार नहीं चाहती कि कसाब को फांसी हो।
लेकिन हम भारतीय दिमाग से ज्यादा दिल से सोचते हैं। और अपने नजरिए से सोचूं तो ये सही भी है। सही इसलिये क्योंकि कसाब को फांसी देने या न देने के लिए हमें किसी को कुछ साबित करने की ज़रूरत नहीं है। हमें पूरे विश्व को ये नहीं दिखाना है कि कसाब को हमारे कानून की तरह से सज़ा मिलेगी। या फिर अमेरिकियों को ये बताने के ज़रूरत है कि पाकिस्तान ही आतंकी गतिविधियों का गढ़ है। हमारा देश अपंग तो है नहीं किसी दूसरे देश की मदद की ज़रूरत पड़ेगी युद्ध में। हम खुद अपनी सुरक्षा करने में सक्षम हैं।
ऐसे भारत सरकार के छुपे तर्क बेफिज़ूल है।
कसाब इस केस के बाद पाकिस्तान का हीरो हो गया होगा। हर साल हम तो मनाते है श्रद्धांजलि और वो मनाते है जश्न। हमे किसी और को नहीं बल्कि कि खुद को साबित करना होगा कि हम दृढ़ निश्चयी है। सवाल यही है आखिर कसाब को फांस क्यों नहीं मिल रही है। शायद कसाब की मौत ही शहीदों को सच्ची श्राद्धांजलि होगी
मेरे बारे में
- शशांक शुक्ला
- नोएडा, उत्तर प्रदेश, India
- मन में कुछ बातें है जो रह रह कर हिलोरें मारती है ...
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कसाब को फांस क्यो नहीं मिल रही ?
शुक्रवार, नवंबर 26, 2010प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 3:59 pm 0 टिप्पणियाँ
लेबल: जागो रे
अरुंधति और कश्मीर समस्या या विवाद
बुधवार, अक्तूबर 27, 2010काहे की लेखिका...आजकल तो ट्रेंड ये है कि लेखक को लेखक तभी माना जाता है जब आप विवादित बातों पर लिखकर विवाद पैदा कर सकें। लेखक होने का मतलब ये तो नहीं कि देश के एक हिस्से को देश से अलग ही बता देना।अरुंधति के कश्मीर के बयान से इतना ही कहा ही जा सकता है कि या तो वो पागल हो गई है या फिर वो उनमें से है जिन्हें विवादित विषयों पर बोलने में काफी आनंद आता है। कभी कभी तो ये भी दिमाग में आता है कि कहीं ऐसा तो नहीं उनकी अगली किताब कश्मीर पर आ रही है। क्या कोई भी भारतीय इस बात से इनकार कर सकता है कि कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है। अरुंधति के भाई बंधु भी छद्दम बुद्धिजीवी बनकर आम जन से बात करने गए हैं। दिलीप पडगांवकर तो खुद को कश्मीर का रहनुमा ही समझ रहे हैं।कश्मीर के अलगाववादी तो ये कहने भी लगे है कि दिलीप उनसे इत्तेफाक रखते हैं। गिलानी ने तो कहा ही है कि दिलीप साहब के विचार बाकी नेताओं से हटकर है। अरे भाई हटकर क्यों नहीं होंगे आखिर वो भी तो गिलानी साहब की हां में हां मिला रहे है।
सवाल है ये नहीं है कि अरुंधति जैसी विवादित लेखिका या फिर छद्म बुद्धिजीवियों का तीन सदस्यीय दल कश्मीर में कैसे कैसे बयान दे रहा है। सवाल ये है कि कश्मीर की आम जनता कैसी आजादी की बात कर रही है। कैसे आज़ादी चाहती है कश्मीर की जनता। हुर्रियत जैसे अलगाववादी पार्टियां और गिलानी और मीरवाइज जैसे नेता दूसरा जिन्ना क्यों बनना चाहते है । कश्मीर उसी दिन आज़ाद हो गया था जिस दिन भारत आजा़द हुआ। उस के बाद से वो भारत के अभिन्न हिस्से की ही तरह है। कश्मीर जैसी ही मांग पंजाब में भी उठी थी। लेकिन पंजाब के लोगों ने ऐसी आवाज़ों का मुंहतोड़ जवाब दिया। आखिरकार हुआ क्या पंजाब प्रदेश भारत का सबसे संपन्न प्रदेशों में से एक बन गया। लेकिन कश्मीर में हालात इसलिये ज्यादा खराब हो रहे है क्योंकि वहां के नेता ही नहीं चाहते कि कश्मीर भारत का हिस्सा रहे। इस काम में पाकिस्तान में बैठे उनके आका मदद कर रहे है। और कश्मीर की भोली भाली जनता उनके इशारों पर नाच रही है। ऐसे में सेना या सुरक्षाबलों की सख्ती को यही नेता गलत बताते है। और इसके सख्ती के विरोध में आतंक का खेल खेला जाता है।
कश्मीर को कैसी आजादी चाहिये। क्या वो अलग देश बनना चाहता है। या फिर पाकिस्तान में जुड़ना चाहता है। पाकिस्तान में शामिल होकर क्या मिलना है ये तो आए दिन देखने को मिल ही रहा है।कभी कराची दहलता है तो कभी लाहौर हिल जाता है। ऐसे में पाकिस्तान में जुड़ने से कम से कम फायदा तो नहीं होने वाला कश्मीरियों को। कश्मीर की आम जनता हर गली नुक्कड़ पर जमावड़े ,सभाओं में आज़ादी की बात कर रही है। आजादी पाकर अलग राष्ट्र बनकर भी कुछ हासिल नहीं होने वाला है। कश्मीर का जितना क्षेत्रफल है या जितनी आबादी है या कहे कि शिक्षा का जो स्तर है उसे देखकर तो यही कहा जा सकता है तथाकथित आज़ादी मिलने के बाद भी कश्मीरियों को उत्पीड़ना का ही सामना करना पड़ेगा। केंद्र सरकार द्वारा भेजे गये तीन सदस्यी बेवकूफ मंडली की बातों का तो पता नहीं लेकिन इतना ज़रूर तय है कि भारत की मुख्य धारा से जुड़कर ही कश्मीर की प्रगति मुमकिन है।
अरुंधति हो या गिलानी ऐसे लोग आज़ादी या उत्पीड़न की बात तो कर सकते है लेकिन सही तरीके से इसका हल नहीं बता सकते है,निकालने की बात तो छोड़ ही दीजिए। कश्मीर में क्यों नहीं विकास की बातें होती है।क्यों नहीं शिक्षा के लिये स्कूल खोलने की बात होती है। विकास इसलिये नहीं हो रहा है क्योकि इन्ही अलगाववादियों ने ही कभी नहीं चाहा कि कश्मीर के युवा इस बात को समझ सकें कि विकास चिल्लाने या गला फाड़कर आज़ादी मांगने से नहीं आता। बल्कि विकास आता है सही दिशा में मेहनत और सही सोच से। नेता तो हमेशा से अपना फायदा सोचते हैं। इन्हें वो कुर्सी नज़र आ रही है जो शायद इन्हें तथाकथित आज़ादी के बाद मिल सकती है।
बात अगर अरुंधति की करें तो ऐसे लेखिकाओं को बकवास करने से पहले सोच समझ लेना चाहिये कि वो क्या बोल रही है। माओवाद का मुद्दा गर्म हुआ तो माओवादियो के पक्ष में बोलना शुरू कर दिया,जब कश्मीर की बात आई तो कश्मीर के नाम पर भारत देश को ही गरिया दिला। अरुंधति को ये समझना पड़ेगा कि किताब लिखने से समझ पैदा नहीं हो सकती है।
प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 1:34 pm 1 टिप्पणियाँ
लेबल: देश की चिंता
फिर वही एहसास है.....
मंगलवार, सितंबर 07, 2010प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 11:22 pm 8 टिप्पणियाँ
लेबल: कविता
हम भारतीय 'कुत्ते' हैं ?.........
रविवार, अगस्त 15, 2010प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 1:26 pm 2 टिप्पणियाँ
लेबल: देश की चिंता
कांग्रेसी की मौत से खत्म होगा नक्सलवाद.....
गुरुवार, जुलाई 08, 2010केंद्र सरकार भले ही नक्सल जैसे कोढ़ को खत्म करने के लिए दृढ़ संकल्प दिखे लेकिन एक सच्चाई ये भी है कि वो इस समस्य़ा स्थाई हल नहीं निकाल सकती है। हिंसा को रोकने के लिये न तो सरकार के पास कोई ठोस योजना है और न ही वो इसका हल चाहती है। नक्सल समस्या की सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि इससे जुड़े लोग वो है जो सरकारी नीतियों और उनसे जुड़े लोगों से त्रस्त हो चुके हैं। गद्दियों पर बैठे लोगों के लिये नक्सल समस्य़ा ऐसी है जैसे किसी गेंहूं की बोरी में घुन लग गया हो। उन्हे पता है कि गेंहू में घुन लगेगा ही लेकिन वो इसका निराकरण नहीं करना चाहते है। वो सिर्फ यही सोच रहे है कि जब गेंहू पिसेगा तो घुन अपने आप लपेटे में आ जायेगा....
एक कारण ये भी है कि उनके लिये नक्सल समस्य़ा देश की समस्य़ा नहीं है ये सिर्फ उन इलाकों की समस्य़ा है जिनमें ये सिर उठाते हैं। इसका हल तभी निकलेगा जब ये नक्सली किसी नेता को खासकर कांग्रेसी नेता तो गोलियों से भून देंगे। आम लोगों की जिंदगी से न तो नक्सलियों को लेना देना और न ही राजशाही गद्दियों पर बैठी सरकारों की। नक्सल समस्य़ा के लिये सेना के इस्तेमाल न करने की दोगली नीतियों से तो यही लगता है कि नेता इसका हल चाहते ही नहीं है। सीआरपीएफ के जवान नक्सलियों के लिए बॉयलर मुर्गे है...वो इनको उन्ही की तरह काट रहे हैं। और कांग्रेसी नेताओं के मोटी हो चुकी खाल पर खरोच तक नहीं लगी है। ऐसे में उन्हे वो दर्द कहां से महसूस होगा तो सीआरपीएफ जवानों के परिवारो के दिलों में होता है। सेना चीख रही है कि इस समस्या के हल के लिये उन्हे तैनात किया जाये, लेकिन सफेद धारी कपड़ों में बैठे मंत्रियों को इसका हल नहीं सूझ रहा है। सीआरपीएफ की ट्रेनिंग कैसी भी रही हो लेकिन वो नक्सलियों के गोरिल्ला युद्ध का हल नहीं निकाल पायेंगे। क्यों कि सीआरपीएफ को वैसी ट्रेनिंग नहीं मिली है।
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री को जब अपनी जान पर खतरा महसूस हुआ तो सेना के इस्तेमाल पर हामी भर दी,लेकिन अभी किसी कांग्रेसी की मौत बाकी है जिसके बाद इस समस्य़ा का भी हल हो जायेगा। देश में अब किस नेता की मौत होनी ये देखना अभी बाकी है। अब तो देश के ज्यादातर लोग मनाते है कि किसी आंतकवादी घटना में किसी नेता की ही मौत हो तभी इसका हल निकल पायेगा। इससे पहले तो किसी को खुद पर खतरा महसूस होगा नहीं। हम तब तक अपन हाथ पैर नहीं चलाते है जब तक हमे खुद पर खतरा महसूस न हो जाये। यहीं होगा जब कांग्रेसी नेता मारा जायेगा। मै किसी की मौत नहीं मांग रहा हूं। लेकिन जिस सोच के साथ नक्सल समस्या का हल निकाला जा रहा है वो समझ में नहीं आ रहा है। आखिर हमारे देश के नीति निर्धारक इस समस्य़ा का हल क्या सोच रहे हैं।
प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 6:05 pm 2 टिप्पणियाँ
लेबल: समाजिक
और फिर कहते है कि कानून के हाथ लंबे होते हैं.......
सोमवार, जून 07, 201023 साल की मुकदमेबाज़ी....हजारों लोगों की मौत और सज़ा सिर्फ दो साल.....अरे इससे ज्यादा साल तो मुकदमा चला है......आखिर क्यों.....क्या चूक रह गयी कि भोपाल की जिस यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से रिसी गैस ने हजारों लोगों को लील लिया उनके आठ दोषियों को इतनी कम सज़ा मिली....आठ में से 7 दोषियों को दो-दो साल कैद और एक-एक लाख रुपये जुर्माना, और धारा 338 के तहत दो साल की कैद और एक-एक हजार रुपये जुर्माना, धारा 336 में तीन महीने कैद और 250 रुपये जुर्माना, धारा 337 में छह महीने कैद और 500 रुपये जुर्माने की सजा सुनाई......दुख की बात ये है कि ये सभी सजाए साथ- साथ चलेंगी......सवाल ये है कि जब सारी सजाए एक साथ ही चलेंगी तो फिर इनका औचित्य क्या है.....
फिर क्यों कहते है कि कानून के हाथ लंबे है.....क्यों कहते है कि इंसाफ देर से ही सही मिलता तो है.....दिल तो उस वक्त दुख गया जब दोषियों में से कुछ को तो तुरंत जमानत भी मिल गयी.....जेब में माल है तो कानून जेब में है.....फिल्मों में अक्सर ये डायलॉग सुना था....यहां तो कुछ ऐसा ही दिख रहा है....भोपाल गैस त्रासदी सिर्फ एक अकेला मामला नहीं है जिस पर आ रहे फैसले से लोगों को कानून से विश्वास उठ रहा है.....एक मामला चंडीगढ़ में भी चल रहा है जहां रुचिका को आत्महत्या के लिए मजबूर करने वाला राठौड़ कानून से हूतूतू खेल रहा है.... ऊपरी तौर पर इस मामले को कोई भी जाने तो मामले को हल्का ही सोचेगा.....आत्महत्या कर ली लड़की ने तो इसपर क्या मामला बनेगा.....कोर्ट ने सजा भी देदी....ये तो बस आंखमिचौली चल रही है ....डेढ़ साल की सज़ा भी वो नहीं काटना चाहता है...सज़ा काट लेगा तो क्या होगा....क्या वो उसका बदला नहीं लेगा...जब उस राठौड़ ने अपनी मनमानी न होने पर बदला लेने की ही नीयत से रुचिका के भाई को घर से उठवा कर पुलिस स्टेशन में फर्जी मामलों में पिटवाता रहा...तो क्या वो फिर बदला नहीं लेगा........सज़ा काफी नहीं है राठौड़ की...वो अगर सज़ा काट भी ले तो काफी नहीं......क्योंकि उसकी इस सज़ा से मानसिक तौर पर कमजोर हो चुके रुचिका के पिता को कुछ हासिल नहीं होगा....वो बेटी खो चुका है,.....बेटा इस हालत में नहीं कि कुछ कर सके.....एक पुलिस का पावरफुल अधिकारी किस हद तक किसी परिवार को तोड़ सकता है ये सामने आया है...और कोर्ट ने मामले पर सिर्फ डेढ़ साल की सज़ा दी.....सवाल है क्यों...
सज़ा सिर्फ आत्महत्या के लिए मजबूर करने की मिली है.....और किसको सिर्फ राठौड़ को....जिसके इशारे पर सब कुछ हो रहा था....ना,......असल गुनहगार राठौड़ नहीं है...गुनहगार तो वो पुलिसवाले है जो रुचिका के भाई को फर्जी मामलों में फंसा कर पीटते थे....इस कदर पीटते थे कि आज वो मानसिक और शारीरिक तौर पर कमज़ोर हो चुका है....और कानून को बड़ा बताने वाले हमारे कोर्ट इस मामले पर डेढ़ साल की सज़ा देते है....यहां मसला सिर्फ किसी जुर्म की सज़ा का नहीं है....जुर्म के पीछे छुपी उस भावना का है जिससे परेशान होकर एक परिवार टूट जाता है....एक लड़की अपने परिवार की हालत देखकर आत्महत्या कर लेती है.....और आला पुलिस अधिकारी राठौड़ सिर्फ डेढ़ साल की सज़ा पाता है.....उसके बावजूद उसकी पत्नी उसका केस लड़ती है.....कानून से कबड्डी का खेल चल रहा है कभी कानून राठौड़ की टांग पकडता है तो कभी राठौड़ अपने पाले में आ जाता है.....
और फिर कहते है कि कानून के हाथ लंबे होते है.....लंबे हाथ कितनी चपत लगाते है ये भी हम देख रहे है.....
प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 6:21 pm 2 टिप्पणियाँ
लेबल: समाजिक
नक्सलवादियों को चाहिये क्या ?
मंगलवार, मई 18, 2010नक्सलवाद हमारे देश को दीमक की तरह खा रहा है। ये वो दीमक है जो लकड़ी नहीं मासूमों का खून पीता है। दंतेवाड़ा की में बीते दिनों हुए विस्फोट में 50 से ज्यादा लोगों की मौत हो गयी। मरने वालों में बस में सवार यात्री थे। इन यात्रियों में पुलिसकर्मी और कुछ नागरिक थे। नक्सलियों का पुलिस या सुरक्षाबलों से दुश्मनी तो एक बार को समझ में आती है लेकिन आम नागरिकों से क्या दुश्मनी है। इस घटना से पहले सीआरपीएफ पर हमला बोला गया जिसमें 74 से ज्यादा जवानों को शहीद होना पड़ा। इसके पीछे गलती किसी की भी हो लेकिन मारने वालों में नक्सली ही शामिल थे।
आज के समय में नक्सलवाद सिर्फ एक तमगा है मनमानी करने या लूटपाट करने का। आज नक्सली अपने हक के लिये नहीं सिर्फ अपनी धाक के लिये लड़ रहे हैं। सरकार इसमें कुछ नहीं कर सकती है। क्योंकि जितने लोग नक्सलियों से परेशान है उनसे ज्यादा लोग नक्सलियों का सपोर्ट करने वाले है। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि इस युद्ध में कितनी जानें गयी है। ये नहीं कहता कि सिर्फ सुरक्षाबलों की बल्कि उन नक्सलियों की जिनको बहकाया गया है। नक्सलियों औऱ आतंकवादियों में ज्यादा फर्क नहीं है। दोनों को ही बहकाया गया है, दोनों हिंसा से अपनी बातें मनवाना चाहते है। दोनों के उसूल आम नागरिकों की लाशों से होकर गुजरता है।
परेशानी की बात ये है कि जो लोग इन हिंसक नक्सलियों का समर्थन करते है उनमें ज्यादातर बुद्धिजीवी वर्ग के हैं। इन छद्म बुद्धिजीवियों को कब अक्ल आयेगी कि नक्सलवाद का अर्थ आज बदल चुका है। जिस तरह अहिंसा का अर्थ बदल गया है। आज अहिंसा का मतलब हथियार गिराना या युद्ध न करना नहीं है। आज अहिंसा का अर्थ है हथियारों की संख्या में इतनी बढोत्तरी करना कि दूसरे तुम पर हमला न कर सकें। अपने हक लिये लड़ने वाले नक्सली आज सिर्फ कुछ लोगों की महत्वकांक्षाओं को पूरा करने वाले पुतले बन गये है। ये वो पुतले है जिनको दाना पानी मिल रहा है हिंसा का समर्थन करके, लूटपाट करके, लोगों को मारकर। मार्क्स के नाम पर नक्सल का सपोर्ट करना मूर्खता नहीं तो और क्या है। क्या हम आज के समय में गांधी के विचार पर चल सकते हैं कोशिश करके देखिये। गांधी के हिसाब से चलने के लिये भी हमें पहले हिंसक तरीकों को सोचना होगा। ताकि हिंसा की नौबत ही न आये। क्योंकि ताकतवर से सब डरते हैं और जिनसे हम डरते है उनसे हिंसा की बात सोच भी नहीं सकते। तो एक तरह से देखा जाये तो वो सबसे बड़ा अहिसावादी हो जाता है। औऱ हम भी।
मेरा सोचना पता नहीं दूसरों से अलग है या नहीं पर मैने इस तरह की बात पहले किसी के मुंह से सुनी नहीं। नक्सल पर कुछ लोगों के विचार अलग है वो समर्थन करते हैं। उन्हें नक्सलवादियों पर गोलियां चले तो दुख होता है। वो उनके हक की बातें करते हैं। वो उनके विकास की बातें करती है। पर क्या कोई ये बता सकता है कि बंदूक के दम पर विकास कहां होता है। सरकार भी तानाशाही करती है, नक्सलवादियों को इलाके में रहने वाले लोगों के साथ बहुत बुरा हुआ है। लेकिन इसका ये मतलब तो नहीं हिंसा पर उतारु नक्सलवादियों पर सरकार भी गोलियां चलवाये तो जेएनयू में छात्र छात्रायें उसको तानाशाही कहें। आज के समय में जब नक्सल की एक एक गोली का हिसाब भी मीडिया की खबरों में होता है। पूरे देश की नजरें उन पर टिकी होती है। उन लोगों पर टिकी होती है। ऐसे में विकास की पहल जब सरकार की ओर से होती है तो बंदूके क्यों गूंज रही है।
सरकार की बातचीत की पहल के बावजूद नक्सली क्यों नहीं आगे आने को तैयार है आखिर उन्हे क्या चाहिये। विकास चाहिये, नौकरी चाहिये,खाना चाहिये क्या चाहिये उन्हे। सब के लिये क्या उन्हे वो सब नहीं करना चाहिये जो देश का हर नौजवान कर रहा है। मेहनत, लगन से क्या कुछ हासिल नहीं किया जा सकता। बंदूक उठाकर सिर्फ छीना जा सकता है उसका लुत्फ नहीं उठाया जा सकता है। क्योंकि लुत्फ सिर्फ उसका उठाया जा सकता है जिसको मेहनत से कमाया हो। नहीं तो जो हालत हम दूसरों का अपनी बंदूकों से कर रहे है वैसा हाल हमारा भी किसी न किसी की बंदूकों से होगा। ये नक्सलियों को कभी नहीं भूलना चाहिये।
अंत में सिर्फ यही कहुंगा कि नक्सलवादियों को बंदूक छोड़कर विकास के रास्ते पर चलना चाहिये। सरकार में कमियां है हर कोई कहता है,लेकिन हर कोई बंदूक तो नहीं उठाने लगता है। हर कोई बंदूक उठा लेगा तो समझ जाना चाहिये कि अपनी गोलियां जब खत्म होंगी तब हमें कोई नहीं बचा पायेगा। सरकार का विरोध करना ही है तो गोलियों से नही अपने हक लड़ाई लड़नी चाहिये, लेकिन उसमें बंदूकों से बहता खून नहीं होना चाहिये।विकास के लिये पहल करने का सरकार को एक मौका देकर देखना चाहिये। क्योंकि देश जिस इलाके पर अपनी नजरें गड़ा कर बैठा हो...उसके साथ गद्दारी करने की हिम्मत किसी में नहीं है।
प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 5:05 am 1 टिप्पणियाँ
वर्ल्डकप की हायतौबा !
शुक्रवार, मई 14, 2010टीम इंडिया इस बार तुम टी 20 वर्ल्ड कप लेकर ही आना....फिर लाना है वर्ल्ड कप...फिर जीतेगा टीम इंडिया... वर्ल्डकप से ठीक पहले सारे अखबार सारे टीवी चैनल परेशान थे। टीम तो वर्ल्डकप से बाहर हो गयी लेकिन खबरें अब भी बरकरार हैं....हां ये बात अलग है कि इस बार टीम इंडिया की बखिया उधेड़ी जा रही है....हार के बाद चाहे वो किसी बार में जाये या फिर बीच पर..हर हरकत पर कड़ी नजर है। और सभी को एक ही चश्में देखा जा रहा है। हार के चश्मे से।
भारत की हार से दिक्कत आम भारतीय को है या नहीं पता नहीं...क्योंकि मै तो आज भी ऑफिस आता हूं। अपना काम करता हूं। शायद बाकी लोग भी यही करते है..लेकिन मज़े की बात ये है कि टीवी चैनल्स को सदमा गहरा लगा है। उबर नहीं पा रहे है टीम की हार से। हार के बाद धोनी हंस क्यों रहे है। युवराज ने फ्रेंच दाढ़ी क्यों रखी है। आशीष नेहरा फैंसी टी शर्ट क्यों पहन रहे हैं। हमें परेशानी बहुत होती है। हार का सदमा ऐसा लगा है कि उबर नहीं पा रहे हैं। मैच के हार के कारण कुछ भी हो लेकिन गुनहगार हर कोई खोज रहा है। कोई धोनी तो कोई युवराज बता रहा है। अब इसके गुनहगार को पकड़ना देश की बाकी परेशानियों से ज्यादा बड़ी खबर है। किसी चैनल पर देख रहा हूं कि टीम इंडिया को फटकार कुछ इस तरह पड़ रही है। देश गुस्से में था औऱ टीम पब में थी। ये बात ठीक है कि शराब पीना सेहत के लिये हानिकारक है तो इसका मतलब ये तो नहीं कि देश को गुस्सा सिर्फ टीम की हार का है। देश तो और भी कई बातों पर गुस्सा होता है। क्रिकेट पर गुस्सा उतार कर क्या करेगा देश.... ये कोई क्यों नहीं सोचता। क्या भारतीय टीम ने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया कभी । मीडिया का गुस्सा टीम की हार से है या आईपीएल मैचों से। मै तो आईपीएल देखना पसंद नहीं करता लेकिन यहां पर गुस्सा आईपीएल से है...न कि वर्ल्ड कप की हार से।
हो सकता है कि गुनहगार धोनी को टीम इंडिया की कप्तानी से भी हाथ धोना पड़े। ये कोई भविष्यवाणी नहीं है। लेकिन जिस तरह के हालात मीडिया बना रहा है ये मुमकिन है। मीडिया में धौनी ने जो भी कहा वो सही कहा। टीम थकी हुई लग रही थी। किसी खिलाड़ी के खेल में उत्साह नहीं झलक रहा था। जीत की ललक नहीं थी। वर्ल्ड कप जैसे मुकाबलों में जीत की ललक न होना शर्मनाक है। ये भी गलत नहीं है कि आईपीएल भी इसका एक बड़ा कारण है। लेकिन इसके पीछे कारण पैसा नहीं है। ज्यादा खेल है। बीसीसीआई पैसे छाप रही है, टीम इसके लिये पैसे छापने की मशीन है। रही बात खिलाडियों के प्रदर्शन की है तो जिन विदेशी खिलाड़ियों ने हमारी पिचों पर जो धमाकेदार प्रदर्शन किया है उन्ही खिलाड़ियों ने वर्ल्डकप में भी अच्छा प्रदर्शन करके अपनी टीम को सफलता दिलवाई है। हमारी टीम में भी सुरेश रैना जैसा उदाहरण है। लेकिन इस पर नजर किसी की नही गयी।
वर्ल्डकप में कौन जीता कौन हारा उससे देश को क्या फर्क पड़ेगा मुझे तो आजतक समझ नहीं आया। यही टीम इंडिया ने जब पहली बार टी 20 वर्ल्ड कप जीता था तो तब भी मै अपने ऑफिस में रोज़ाना के काम पर जाता था औऱ जब टीम आज बाहर हुई तब भी यही कर रहा हूं। सोचता हूं कि टीम जब जीती थी तो कम से कम नोएडा वालों को बिजली और पानी तो 24 घंटे न सही 20 घंटे ही दे देते...अरे टीम इंडिया ने वर्ल्ड कप जीता था यार ट्वेंटी ट्वेटी घंटे ही दे देते...
प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 4:43 am 1 टिप्पणियाँ
लेबल: खेल खिलाड़ी
कल का मैच फिक्स था...चेन्नई का जीतना तय था...
सोमवार, अप्रैल 26, 2010प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 3:12 pm 6 टिप्पणियाँ
लेबल: खेल खिलाड़ी
क्या मैने सही किया ?
सोमवार, अप्रैल 19, 2010मीडिया में काम करना काफी थकाऊ होता है। दिन भर की भागदौड़, हर काम को समय से भेजने की तेजी, सभी कुछ। मेरी भी काम की शिफ्ट खत्म हो चुकी थी। थक तो काफी गया था, शाम तीन बजे से रात के 12 बजे तक की शिफ्ट है। काम खत्म करके सीधा घर आ जाता हूं। रास्ते में कही रुकता तक नहीं, सूनसान सड़कें होती है, रुकने का मन ही नहीं करता, सूनेपन से डर लगता है। बाइक पर बैठा सीधे अपने घर की ओर निकल पड़ा, रास्ते में कानों में हेडफोन लगाये मधुर संगीत का आनंद लेते हुए खाली सड़कों पर लगभग अकेला चला आ रहा था, लगभग अकेला इसलिये क्योंकि इक्का दुक्का गाडियां मुझे और मेरी बाइक को देखती हुई निकल जा रही थी।
बस मेरे घर के पास का आखिरी चौराहा जहां से मुझे अपने कमरे के लिये मुड़ना है। चौराहे पर ही सूनसान रात में एक लड़की एक छोटे से पेड़ के नीचे खड़ी है, मैने दूर से ही देख लिया। रात के अंधेरे में सड़को पर रोशनी करती स्ट्रीट लाइट से छुपती वो लड़की किसी का इंतजार कर रही थी शायद। एक टाटा इंडिका कार जिस पर पीली पट्टी पर काले अक्षरों से नंबर लिखा था वो उसके पास जाकर रुक गयी। सोचा कि हो सकता है कि वो उसमें बैठ जाये। पर नहीं वो नहीं बैठी, वो गाड़ी के ड्राइवर से बात कर रही थी। मै उनको क्रॉस करके आगे चला जा रहा था, मेरी नजर उस लड़की पर थी, पत्रकारों की गंदी आदत नहीं जाती है, कुछ भी संदेहास्पद लगता है तो नज़रे टिक ही जाती है। मुझे एक बार के लिए लगा कि कहीं वो कैब वाले उस लड़की को छेड़ने के लिहाज़ से तो नहीं खड़े है, पर नहीं चिल्लाने की आवाज नहीं आई, पर फिर भी मै रुका, मै पलटा उसे देखने के लिये, वो लड़की सफेद सी दिखने वाली टीशर्ट में थी, अंधेरे में सावला सा दिखने वाला चेहरा था, न ज्यादा पतली ना मोटी, वहां से हिली तक, नहीं कैब वाले से बात कर रही थी।
दिमाग ठनका, मुझे यकीन हो चला की उस लड़की को कोई नहीं छेड़ रहा है, हां वो किसी का इंतज़ार ज़रुर कर रही थी। किसका ये खुद उसे भी पता नहीं होगा, पर हां जिसके पास उसकी कीमत लगाने का माद्दा होगा वही उसे ले जायेगा। उसी का लडकी को इंतजा़र था शायद, मुझे बर्दाश्त नहीं हुआ, पता नहीं क्यों पर मै वहां से सीधे घर न जा सका। आगे ही मैने मोटरसाइकिल पर सवार दो पुलिस वालों को देखा। मै उनके पास गया और उन्हे पूरी घटना बताई। घटना सुनने के बाद उन्हे समझने में देर न लगी कि वो कौन है। या फिर वो यहां क्यों खड़ी थी रात में । पुलिस को खबर करके मै सीधे अपने घर आ गया।
पर एक बात जो मेरे दिमाग में घर कर गयी कि क्या सच में वो लड़की उन्ही लड़कियों में से थी जिनको अपनी कीमत चाहिये होती है। या फिर कोई और थी। क्या मैने सही किया पुलिस को खबर करके। पुलिस ने जो भी कदम उठाया हो।मुझे नही मालूम पर इतना ज़रूर पता है कि अगले दिन उस जगह पर पेड़ और उसकी छाया तो थी पर वो लड़की नहीं थी। अब सोचता हूं कि पेट के लिये शायद वो ऐसा करती होगी, खुद को दोषी महसूस कर रहा हूं, सोच रहा हूं कि क्या मैने सही किया ?
प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 11:52 am 8 टिप्पणियाँ
लेबल: अनुभव
शायद अंगूर खट्टे थे.....
शनिवार, अप्रैल 03, 2010प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 6:39 pm 7 टिप्पणियाँ
लेबल: अनुभव
दिल तोड़ के ना जा सानिया- भारत
गुरुवार, अप्रैल 01, 2010सानिया तुमने भारत में रहने वाले हर भारतीय नौजवान का दिल तोड़ दिया। तुम कैसे किसी और की हो सकता है, और वो भी किसी पाकिस्तानी की। क्या भारत में तुम्हारे लायक कोई नहीं बचा था। तुम्हारे जीतने पर हम कितना खुश होते थे। तुम शादी कर रही हो हमारे लिये तो ये ही काफी है दिल तोड़ने के लिये लेकिन तुमने तो हर भारतीय का दिल तोड़ा है। तुम शोहराब से शादी करने वाली थी, हमें सुकुन हुआ कि चलों कि तुम किसी भारतीय से शादी कर रही हो लेकिन तुमने तो पाकिस्तान के क्रिकेट कप्तान शोएब मलिक को अपना मान लिया। अरे ये वही पाकिस्तानी है तो किसी के नहीं हुए, तो तुम्हारे कैसे हो सकते है।
प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 3:57 pm 10 टिप्पणियाँ
लेबल: खेल खिलाड़ी
बाबा वाबा ना...बाबा ...ना
मंगलवार, मार्च 16, 2010प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 10:32 am 8 टिप्पणियाँ
लेबल: सामाजिक
बचपन की सीनरी वाला भविष्य
शुक्रवार, मार्च 05, 2010प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 6:17 pm 18 टिप्पणियाँ
लेबल: अनुभव
होली की ठिठोली
रविवार, फ़रवरी 28, 2010प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 7:16 pm 12 टिप्पणियाँ
1411 एक टाइगर की फरियाद
शुक्रवार, फ़रवरी 26, 2010प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 5:31 pm 6 टिप्पणियाँ
लेबल: टाइगर संरक्षण
क्रिकेट का सुपरमैन !
बुधवार, फ़रवरी 24, 2010सचिन तेंदुलकर को क्रिकेट का सुपरमैन कहें तो इसमें कोई दूजी राय नहीं हो सकती है। हां ये अलग बात है कि वो पैंट के उपर चढ्ढी नहीं पहनते है। लेकिन जिस तरह सचिन विरोधी टीम पर हावी होते है उससे इतना होता ही है कि कोई भी गेंदबाज उन्हें गेंद फेंकने से पहले अपनी पैंट को कस कर ज़रुर बांध लेता होगा।
प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 11:57 pm 4 टिप्पणियाँ
लेबल: खेल खिलाड़ी
किस्मत क्या है ?
बुधवार, फ़रवरी 17, 2010मन दुखी है इसलिये कुछ ऐसा लिख रहा हूं जिसको पढ़कर हो सकता है कुछ लोगों को अजीब लगे। ये भी हो सकता है कि कुछ लोग मेरी बातों से सहमत हो। लेकिन जो मेरे साथ हो रहा है उसको देखकर पता नहीं क्यों मुझे महसूस हो रहा है कि जो लोग किस्मत को बलवान बताते है शायद वो सही कहते है।
बहुत दिनों से बेकार घर बैठने के बाद एक जगह से कॉल तो आई नौकरी के लिये, हां ये बात अलग है कि उस कंपनी की हालत खराब है और वहां पर लोगों को तीन तीन महीने से सैलरी के दर्शन तक नहीं हुए है, लेकिन फिर भी पता नहीं क्यों वहां से आये बुलावे ने मुझे वहां जाने के लिये मजबूर कर दिया। सोचा था कि जहां से करियर की शुरुआत हुई और वहीं से लगभग अंत भी..तो मुझे लगा कि क्यों न जब एक और शुरुआत वहीं से करने को मिल रही है तो मौके का इस्तेमाल करना चाहिये। लोगों ने बहुत समझाया कि वहां जाना ठीक नहीं है, लेकिन घर बैठकर बेकार की बातें सोचने से अच्छा कहीं पर बिना सैलरी के काम करना है। वो भी तब जब आप खाली बैठे हों।
बुलावे पर चले तो गये,पर हालत सामान्य नहीं थे। बाकायदा वहां के एच आर से बात भी हुई, उन्होने इंटरव्यू भी लिया, चलो यहां तक तो ठीक था। अगले दिन ज्वाइनिंग का दिन था। ज्वाइनिंग का फार्म मेरे हाथ में था, मै उसको भरने ही जा रहा था कि अचानक मेरे फोन की घंटी बज उठी। मुझे फिर से एच आर के ऑफिस में तलब किया गया। वहां से मुझे वो अपने साथ न्यूज रुम की ओर ले गये। जहां पर बैठे ज्यादातर लोग मेरे जानकार थे। और शायद ज्यादातर शुभचिंतक भी। मुझे इंचार्ज से मिलवाया गया औऱ बस मै उनसे शिफ्ट की बात करने ही वाला था कि......
एक फोन बज उठा और उसको उठाने वाले व्यक्ति ने मुझको बताया कि एक बार फिर से मुझे एच आर के ऑफिस में बुलाया गया है। अब इस बार जो होने वाला था उसका मुझे अंदाज़ा कम ही था। क्योंकि जब आपके सामने सब कुछ ठीक चल रहा हो औऱ चीज़े फाइनल दौर में हो तो आल इज वैल...यहीं लगता है।
एचआर मुझसे पहले किसी और से बातों में मशगूल था। उनके बाद मेरा नंबर आया। कुछ देर चुप रहने बाद एच आर बोले
" शशांक देखो ऐसा है कि आपका समय बर्बाद करने के लिये सॉरी,
मैने पूछा क्यों सर क्या हुआ
देखो ऐसा है कि तुमसे पहले किसी को बुलाया था, पहले वो नहीं आ रहा था लेकिन अब आ गया है तो मै आपको अभी ज्वाइन नहीं करवा सकता हूं।
एक बार के लिये मै सन्न रह गया लेकिन फिर अपने आप को संभाला और एक सवाल दाग दिया
ठीक है सर पर..ये तो आपकी बात हुई...अब सच क्या है ये बता दीजिये।
देखो शशांक तुम तो जानते हो..कभी कभी लगाई बुझाई की वजह से हमें नीचा देखना पड़ता है। अब क्या कह सकते है इससे ज्यादा। बस तुम्हारा समय खराब करने के लिये माफी मांग सकता हूं। इतना कह सकता हूं कि फिलहाल तुमको नहीं रख सकते।
मै उनके इस जवाब के बाद चुप हो गया और चुपचाप उनके कैबिन से निकल कर बाहर आ गया, न सिर्फ बाहर बल्कि बिलकुल बाहर। उनके इस जवाब के बाद मुझे ज्ञात हो गया कि हो न हो किसी ने मेरे खिलाफ कोई न कोई साज़िश रच डाली है। न्यूजरुम में बैठे मेरे शुभचिंतक लगने वाले लोगों में से कोई न कोई मेरा दुश्मन था जो मुझे पसंद नहीं करता। लेकिन सच कह रहा हूं आज तक कभी मैने किसी को अपना दुश्मन नहीं होने दिया है।
इस घटना के बाद अब सोचने को मजबूर हो गया हूं कि ये कैसा किस्मत का खेल चल रहा है। एक तरफ सब ठीक होता नज़र आता है तो दूसरी तरफ राजनीति का शिकार होता मै। किसको दोष दूं खुद को, कंपनी की पालिसी को या फिर उस आदमी को जिसने मेरे खिलाफ साजिश रची है।
क्योंकि पहले मै वहां पर काम कर चुका हूं इसलिये मेरे काम के बारे में वहां काम करने वाले लोग अच्छी तरह से जानते है। लेकिन अब किया भी क्या जा सकता है क्योंकि जिस देश का राजा निरंकुश हो वहां की हालत अच्छी कैसे रह सकती है। उसका को सर्वनाश उन्ही के पिछलग्गू ही करते है
प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 5:19 pm 6 टिप्पणियाँ
लेबल: अनुभव
वैलेंनटाइन्स डे और विरोधी
शनिवार, फ़रवरी 13, 2010एक बात समझ के परे है कि ये लोग तब कहां रहते है जब बलात्कार के आरोपियों को सालों साल सजा तक नहीं मिल पाती। आखिर ये कौन लोग हैं जो समाज को संस्कृति का पाठ पढ़ाते हैं । कितना जानते है ये विरोधी... जो वैलेनटाइन डे का विरोध करते है। इस विषय में सिवाय इसके कि ये पश्चिमी सभ्यता का पर्व है कितना जानते है ? हीर रांझा, सोहनी महिवाल, राधा कृष्ण का नाम तो इज्जत लेते है...लेकिन रोमिया जूलियट का नाम इनके दिलों में चुभता है। तालिबान की रीति या नीति का विरोध तो बहुत करते हैं पर क्यों नहीं सोचते की अंजाने में या फिर जानकर भी हम उन्हीं के नक्शे कदम पर चल रहे हैं।
प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 10:13 pm 3 टिप्पणियाँ
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शिवसेना और शाहरुख़ 'ख़ान'
बुधवार, फ़रवरी 03, 2010शिवसेना प्रमुख और उनके पुत्र उद्धव ठाकरे ने शाहरुख को तो देशद्रोही तक मानने लगे है और पाकिस्तानी खिलाड़ियों के मुद्दे पर किंग खान को माफी मांगने को कह डाला है। शाहरुख ने भी माफी न मांगने दम्भ भरा है। क्योंकि ये तो सौ फीसदी सत्य है कि शाहरुख ने पाकिस्तानी खिलाड़ियों को खरीदने की बात कही थी, लेकिन इसके पीछे का कारण है खिलाडि़यों की उपलब्धता। कोई भी टीम ये नहीं चाहती है कि उनके खिलाड़ी टीम के लिये उपलब्ध न हो सके। इसलिये किसी भी टीम ने पाकिस्तानी खिलाड़ियों को खरीदने में रुचि नहीं दिखाई।
लेकिन सवाल ये है कि क्या पाकिस्तानी खिलाडि़यों को खरीदना ज़रुरी है या नहीं। और अगर ज़रुरी है तो वो इसलिये क्योंकि वो इस वक्त ट्वेंटी ट्वेंटी चैम्पियन है। चैम्पियन होने के नाते पाकिस्तानी खिलाड़ियों को तवज्जो न मिलना इस बात को दर्शाता है कि कोई न कोई दूसरा कारण ज़रुर है जिसकी वजह से उन खिलाड़ियों को नहीं खरीदा जा रहा है। टीमें अपना कारण बता चुकी है शाहरुख भी इसी कारण से अपना पक्ष रख चुके है। शाहरुख के अपने पक्ष ने ही उनको मुसीबत मे डाल रखा है। शिवसेना जैसी कट्टरपंथी सिर्फ इसलिये ही दबाव बना रहे है क्योंकि इसमें पाकिस्तानी खिलाड़ियों का नाम है । हां ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों का भी विरोध हो रहा है लेकिन शिवसेना का मुख्य मकसद पाकिस्तान के नाम पर शाहरुख को लपेटना है क्योंकि उनका नाम शाहरुख खान है। औऱ ये बात किसी से छुपी नहीं है कि शिवसेना किस कदर कट्टरपंथी है।
पाकिस्तानी खिलाड़ियों को न लेना या लेना इससे उन्हे कोई फर्क नहीं पड़ता है। ये पाकिस्तानी खिलाड़ियों का लालच है जो न लेने पर उन्हें बैखलाये दे रहा है। पाकिस्तानी खिलाड़ियों के लेने या लेने के मुद्दे पर हर कोई इस मुद्दे पर एक दूसरे के पाले में डाल रहा है क्योंकि इस मामले में पाकिस्तानी खिलाड़ियों का नाम है। अगर कोई और देश होता तो शायद इतना बबाल न होता। पाकिस्तान से भारत की दुश्मनी सालों से चली आ रही है लेकिन आज के मुद्दे पर ये कहना है कि मुंबई पर हुए हमले की वजह से पाकिस्तानी खिलाडियों को न लिया जाए। अपनी जगह सही है लेकिन शाहरुख को गलत ठहराना कि वो पाकिस्तान जाकर बस जायें, ये तो शिवसेना द्वारा हिंदुत्व की गलत परिभाषा है। शाहरुख को सिर्फ मुस्लिम होने की वजह से निशाना न बनाया जाए। अगर दिक्कत थी तो पहले आईपीएल में क्यों नहीं शिवसेना जैसी कट्टरपंथी पार्टियों ने अपना विरोध दर्ज कराया।
रही बात पाकिस्तान की तो उनसे तो सभी तरह के संबंध तोड़ लेने चाहिये। चाहे वो खेल हो राजनीति है या व्यवसाय। क्योंकि जो देश हमारे खिलाफ षडयंत्र रचता रहता है उससे किसी प्रकार का संबंध गलत होगा। लेकिन शिवसेना की बात की जाये तो उनकी सोच एक दूसरे को हमेशा काटती है। कभी वो पश्चिमी सभ्यता के विरोध में वैलेंनटाइंस डे का विरोध करते है तो दूसरी तरफ माइकल जैक्सन के साथ गलबहियां करते नज़र आते है तो कभी पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलने के विरोध में पिच ही खोद डालते है, लेकिन यहां भी मियांदाद को खाने पर बुलाते है।
अब इसे क्या कहें, इन सवालों पर जवाह चाहे जो भी निकल कर सामने आये लेकिन इस मुद्दे पर यही कहना ठीक होगा कि शिवसेना इस पर खालिस राजनीति कर रही है। और इसी की आड़ में अपने छद्म हिंदुत्व की रोटियां सेंक रही है और कुछ नहीं।
प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 8:20 pm 6 टिप्पणियाँ
लेबल: सामाजिक