कसाब को फांस क्यो नहीं मिल रही ?

शुक्रवार, नवंबर 26, 2010

26/11 मुंबई हमले को दो साल हो गये। हर साल हमले की याद में श्रद्धांजलि देना त्योहार सा हो गया है। लोग इकट्ठा होते है और शहीदों को याद करते है। उनकी बहादुरी को सलाम करते हैं। लेकिन क्या इतने भर से  शहीदों को शांति मिल गई। सच कहे तो हमें क्या पता कि मृत्यु के बाद किसे शांति मिली किसे नहीं। लेकिन सवाल है कि शहीदों के नाम पर क्या हमारे दिलों को शांति मिली। नहीं....नहीं मिली। मारे तो गये थे सारे आतंकी लेकिन पकड़े गए एकमात्र ज़िंदा आंतकी आमिर अजमल कसाब की मृत्यु से हम भारतीयों को दिल को सुकून कब मिलेगा। फांसी की सज़ा मिले तो उसे काफी दिन हो गये।  केस चलता जा रहा है। मुझे तो लगता है कि वो अपनी प्राकृतिक मौत तो मरेगा ही साथ ही हमारे देश के करोड़ों रुपये भी खा लेगा। बहुत हुआ तो कोई हवाई जहाज अगवा करके उसे छुड़वाने की अपील करवा लेगा। लेकिन फिर भी हमारे देश के रुपये तो खाकर ही जाएगा।

सवाल है कि  आखिर कसाब जैसे दो टके के आतंकी को शाही ट्रीटमेंट क्यों दिया जा रहा है। इसके बारे में ज्यादातर लोग नहीं सोचते हैं। कसाब को अपने अंडे की तरह सेह रहे है। क्योंकि उसके दम पर ही हमे दुनिया को साबित कर सकते है कि पाकिस्तान ही आतंकी गतिविधियों का अड्डा है। मुंबई हमले को तरजीह इसलिये दी जा रही है क्योंकि इस हमले में विदेशी भी मारे गये थे। जिसकी वजह से इस मामले में पुरे विश्व की नजर इसके केस पर  टिकी है। इसी को भुनाने के लिये भारत सरकार नहीं चाहती कि कसाब को फांसी हो।

लेकिन हम भारतीय दिमाग से ज्यादा दिल से सोचते हैं। और अपने नजरिए से सोचूं तो ये सही भी है। सही इसलिये क्योंकि कसाब को फांसी देने या न देने के लिए हमें किसी को कुछ साबित करने की ज़रूरत नहीं है। हमें पूरे विश्व को ये नहीं दिखाना है कि कसाब को हमारे कानून की तरह से सज़ा मिलेगी। या फिर अमेरिकियों को ये बताने के ज़रूरत है कि पाकिस्तान ही आतंकी गतिविधियों का गढ़ है। हमारा देश अपंग तो है नहीं किसी दूसरे देश की मदद की ज़रूरत पड़ेगी युद्ध में। हम खुद अपनी सुरक्षा करने में सक्षम हैं।

ऐसे भारत सरकार के छुपे तर्क बेफिज़ूल है।

कसाब इस केस के बाद पाकिस्तान का हीरो हो गया होगा। हर साल हम तो मनाते है श्रद्धांजलि और वो मनाते है जश्न। हमे किसी और को नहीं बल्कि कि खुद को साबित करना होगा कि हम दृढ़ निश्चयी है। सवाल यही है आखिर कसाब को फांस क्यों नहीं मिल रही है। शायद कसाब की मौत ही शहीदों को सच्ची श्राद्धांजलि होगी

अरुंधति और कश्मीर समस्या या विवाद

बुधवार, अक्टूबर 27, 2010

काहे की लेखिका...आजकल तो ट्रेंड ये है कि लेखक को लेखक तभी माना जाता है जब आप विवादित बातों पर लिखकर विवाद पैदा कर सकें। लेखक होने का मतलब ये तो नहीं कि देश के एक हिस्से को देश से अलग ही बता देना।अरुंधति के कश्मीर के बयान से इतना ही कहा ही जा सकता है कि या तो वो पागल हो गई है या फिर वो उनमें से है जिन्हें विवादित विषयों पर बोलने में काफी आनंद आता है। कभी कभी तो ये भी दिमाग में आता है कि कहीं ऐसा तो नहीं उनकी अगली किताब कश्मीर पर आ रही है। क्या कोई भी भारतीय इस बात से इनकार कर सकता है कि कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है। अरुंधति के भाई बंधु भी छद्दम बुद्धिजीवी बनकर आम जन से बात करने गए हैं। दिलीप पडगांवकर तो खुद को कश्मीर का रहनुमा ही समझ रहे हैं।कश्मीर के अलगाववादी तो ये कहने भी लगे है कि दिलीप उनसे इत्तेफाक रखते हैं। गिलानी ने तो कहा ही है कि दिलीप साहब के विचार बाकी नेताओं से हटकर है। अरे भाई हटकर क्यों नहीं होंगे आखिर वो भी तो गिलानी साहब की हां में हां मिला रहे है।

सवाल है ये नहीं है कि अरुंधति जैसी विवादित लेखिका या फिर छद्म बुद्धिजीवियों का तीन सदस्यीय दल कश्मीर में कैसे कैसे बयान दे रहा है। सवाल ये है कि कश्मीर की आम जनता कैसी आजादी की बात कर रही है। कैसे आज़ादी चाहती है कश्मीर की जनता। हुर्रियत जैसे अलगाववादी पार्टियां और गिलानी और मीरवाइज जैसे नेता दूसरा जिन्ना क्यों बनना  चाहते है । कश्मीर उसी दिन आज़ाद हो गया था जिस दिन भारत आजा़द हुआ। उस के बाद से वो भारत  के अभिन्न हिस्से की ही तरह है। कश्मीर जैसी ही मांग पंजाब में भी उठी थी। लेकिन पंजाब के लोगों ने ऐसी आवाज़ों का मुंहतोड़ जवाब दिया। आखिरकार हुआ क्या पंजाब प्रदेश भारत का सबसे संपन्न प्रदेशों में से एक बन गया। लेकिन कश्मीर में हालात इसलिये ज्यादा खराब हो रहे है क्योंकि वहां के नेता ही नहीं चाहते कि कश्मीर भारत का हिस्सा रहे। इस काम में पाकिस्तान में बैठे उनके आका मदद कर रहे है। और कश्मीर की भोली भाली जनता उनके इशारों पर नाच रही  है।  ऐसे में सेना या सुरक्षाबलों की सख्ती को यही नेता गलत बताते है। और इसके सख्ती के विरोध में आतंक का खेल खेला जाता है।

कश्मीर को  कैसी आजादी चाहिये। क्या वो अलग देश बनना चाहता है। या फिर पाकिस्तान में जुड़ना चाहता है। पाकिस्तान में शामिल होकर क्या मिलना है ये तो आए दिन देखने को मिल ही रहा है।कभी कराची दहलता है तो कभी लाहौर हिल जाता है। ऐसे में पाकिस्तान में जुड़ने से  कम से कम फायदा तो नहीं होने वाला कश्मीरियों  को। कश्मीर की आम जनता हर गली नुक्कड़ पर जमावड़े ,सभाओं में आज़ादी की बात कर रही है। आजादी पाकर अलग राष्ट्र बनकर भी कुछ हासिल  नहीं होने वाला है। कश्मीर का जितना क्षेत्रफल है या जितनी आबादी है या कहे कि शिक्षा का जो स्तर है उसे देखकर तो यही कहा जा सकता है तथाकथित आज़ादी मिलने के बाद भी कश्मीरियों को उत्पीड़ना का ही सामना करना पड़ेगा। केंद्र सरकार द्वारा भेजे गये तीन सदस्यी बेवकूफ मंडली की बातों का तो पता नहीं लेकिन इतना ज़रूर तय है कि भारत की मुख्य धारा से जुड़कर ही कश्मीर की प्रगति मुमकिन है।

अरुंधति हो या गिलानी ऐसे लोग आज़ादी या उत्पीड़न की बात तो कर  सकते है लेकिन सही तरीके से इसका हल नहीं बता सकते है,निकालने की बात तो छोड़ ही दीजिए। कश्मीर में क्यों नहीं विकास की बातें होती है।क्यों नहीं शिक्षा के लिये स्कूल खोलने की बात होती है। विकास इसलिये नहीं हो रहा है क्योकि इन्ही अलगाववादियों ने ही कभी नहीं चाहा कि कश्मीर के युवा इस बात को समझ सकें कि विकास चिल्लाने या गला फाड़कर आज़ादी मांगने से नहीं आता। बल्कि विकास  आता है  सही दिशा में मेहनत और सही सोच से। नेता तो हमेशा से अपना फायदा सोचते हैं। इन्हें वो कुर्सी नज़र आ रही है जो शायद इन्हें तथाकथित आज़ादी के बाद मिल सकती है।

बात अगर अरुंधति की करें तो ऐसे लेखिकाओं को बकवास करने से पहले सोच समझ लेना चाहिये कि वो क्या बोल रही है। माओवाद का मुद्दा गर्म हुआ तो माओवादियो के पक्ष में बोलना शुरू कर दिया,जब कश्मीर की बात आई तो कश्मीर के नाम पर भारत देश को ही गरिया दिला। अरुंधति को ये समझना पड़ेगा कि किताब लिखने से समझ पैदा नहीं हो सकती है।

फिर वही एहसास है.....

मंगलवार, सितंबर 07, 2010


सालों बाद 
पिछले कुछ दिनों से 
फिर वही एहसास .....

बरसों पहले छू गया था वो
कुछ दिनों से
पास से गुजरता....
फिर वही एहसास.....

कैसे शब्दों में उलझाउं 
निशब्द उलझा हूं....
मेरी नज़रों के पास..
फिर वही एहसास ........

अंजानी क्यों पहचानी सी.....
नैनों में प्यास पुरानी सी
कुछ तो खास है.....
उफ़....
.क्या कहूं..... क्या करूं..... 
फिर वही एहसास .....

पहले भी पहल नहीं ...
अब भी रुका हूं
लेकिन
इस दिल में उठा
फिर वही एहसास है

हम भारतीय 'कुत्ते' हैं ?.........

रविवार, अगस्त 15, 2010

                          सुपर बग के बारे पढ़कर सिर्फ यही लगा कि विदेशी हमारी सफलता से जल रहे हैं। उन्हे  बर्दाश्त नहीं हो रहा है कि  आखिर कैसे भारत में मेडिकल सेवाएं बाकी देशों से सस्ती है। और तो और अच्छी भी। ये सिर्फ एक दुर्भावना से प्रेरित कदम है जिसमें एक वायरस का नाम न्यू डेल्ही मोटालो 1 का नाम दिया गया है। अभी तक तो  ये अंग्रेज भारत को सांपों का देश कहते थे। चलो एक और नामकरण हो गया बैक्टीरिया वाला देश। लेकिन उसके बाद भी हम और विदेशों में रह रहे भारतीय इससे भी सबक नहीं लेंगे।

विदेशों में काम करना उन्हें इस कदर भा गया है कि वो वापस आना ही नही चाहते हैं। ऑस्ट्रेलिया के किस्से तो मैने बहुत पढ़े है। लोगों को विदेश जाकर काम करने का शौक बहुत होता है। इसके लिये कई लोग तो जीवन भर इंतजार करते है। कनाडा को तो जैसे दूसरा भारत तक कहा जाने लगा हैं। देश के बाहर काम करने की चाहत का एक किस्सा मेरे साथ कुछ दिन पहले ही हुआ समझ नहीं आया उस वक्त कौन सही था और कौन गलत पर....... कुछ मित्रों के साथ दोपहर के खाने के वक्त बैठे थे। बातचीत भारत के इतिहास पर हो रही थी। एक मित्र इसमें काफी अच्छी जानकारी रखते हैं। हमारे इन दोस्त मंडली में एक ने बोला कि 
'यार मज़ा तो बाहर देश में काम करने का है'
मैने पूछा क्यों
'क्यों का यार उनके शहर देखो,उनके घर देखो, उनका रहने का तरीका देखो'
'हां इसमें क्या है,हमारे देश में भी ऐसे लोग रहते है जो साफ सुथरे तरीके से रहते है'
'अरे नहीं यार विदेश में जैसे लोग गंदे तरीके से रहते है,हमारे यहां उसे साफ कहते है'
मित्रों में से एक ने पूछा ' क्या बात कर रहे हो यार, तुम कहां हो आये हो....'
'कहीं होकर आने से कुछ नहीं होता है, मैने देखा है......'.
'तो फिर तुमने टीवी में देखा होगा'
हम सभी के मुंह से हंसी छूट गयी...

''विदेश में जाकर काम करने मे क्या अच्छा है...यहां से भर भर कर जाते है वहां जाकर होटलों में काम करते है
टैक्सी चलते हैं.....यहां आकर खुद को एनआरआई बताते है.....''

''तो क्या हुआ....वहां एक डालर कमा लेते है तो यहां के पचास रुपये हो जाता है....''
'अबे तो क्या हुआ...वही काम यहां करते है ....तो छोटे थोड़े ही हो जाते है....यहां भी जितना मेहनताना होगा उतना ही मिलेगा.....''

''अबे तुम्हे नहीं पता है...विदेशों में ड्राइवर की भी बहुत पूछ होती है। लोग एक दूसरे से बात करते है इज्जत के साथ कि वो ड्राइवर है'' 

''अरे यार तुम भी कैसी बात कर रहे हो....ये सोच तो अपने अपने ऊपर निर्भर करती है। कुछ लोग ड्राइवर को अच्छी नजरों से देखते है और कुछ लोगों उसे  छोटा काम समझते है''

''भाई साहब कनाडा में तो लोग इज्जत से कहते है वो ड्राइवर है...''.

तभी एक दोस्त ज़ोर से  हंसा औऱ बोला....''.हां जैसे यहां पर आईएएस अधिकारी, या पुलिस अधिकारी को कहते हैं......वैसी ही इज्जत वहां ड्राइवर की होती होगी....''

हम सारे जोर से हंस पड़े....तभी एक दूसरे दोस्त ने बोला 
'' यार कुछ भी कहो लेकिन होटलों में काम करना सभी जगह एक जैसा ही होता है....आप यहां भी बर्तन साफ करेंगे,झाड़ू लगायेंगे, सर्व करेंगे, और दूसरे देश में भी। बस  होता ये है कि हम यहां अपने देशवासियों के लिये करते हैं। औऱ वहां पर विदेशी गोरों के लिये....उनके लिये खाना सर्व करना हमें इज्जतदार लगता है...और अपने लोगों को सर्व करना शर्मनाक....ये कैसी मानसिकता है .''....

''बिलकुल ठीक..यही शब्द थे मेरे.....दिमाग में इस कदर गुलामी की बेड़ियां जकड़ी हुई है कि हम आज भी अंग्रेजो को देखकर उनके लिए आदर जागता है...उन्हे अपना अन्न दाता समझते हैं। वो कुछ भी कहे हमें लगता है कि वो सही कह रहे है''

''चलो ये तो हुई जो पढ़े लिखे नहीं है ज्यादा उनकी बात....लेकिन उनकी तो काफी इज्जत होती है जो पढ़े लिखे है...और विदेशों में काम कर रहे है.....उन्हे तो काफी पैसा मिलता है और इज्जत भी''

''हां ये ठीक है....लेकिन इज्जत शायद नहीं मिलती है। अगर मिलती तो ब्रिटेन अपने ओलंपिक में भारतीयों को न छूने की हिदायत नहीं देता। इससे क्या दिखता है उनके दिल में हमारे लिए कितनी इज्जत है''

एक मिनट के लिय चुप हो गये हम सब....

''अरे यार एक देश ऐसा कर रहा है इसका मतलब ये तो नहीं कि सभी देशों में ऐसा हो रहा है''

''हां क्यों ऑस्ट्रेलिया भूल गये क्या....या सिर्फ क्रिकेट मैच में ही याद रहता है। वहां रोजाना पिट रहे भारतीयों को भूल गये ....स्टूडेंट तक को तो नहीं बख्श रहे है लोग वहां...टैक्सी ड्राइवरों की तो और भी बुरा हाल है। एक सरदार ड्राइवर को नस्ली टिप्पणी करके यू ब्लडी इंडियन कह दिया और उसको पैसे भी नहीं दिए.....खबरों की दुनिया से जुड़े हो यार ये तो पता ही होगा''

''अरे तो पुलिस भी कुछ करती है वहां की....पूरी खबर नहीं पढ़ी थी क्या....पुलिस के पास शिकायत के लिये जब वो ड्राइवर गया तो पुलिस वाला सिर्फ हंसता रहा। और उसे भगा दिया''

''अरे छोड़ो यार किस मसले पर बात करके दिमाग खराब कर रहे है यार हम लोग हम लोग खाना खा रह है शांति से खाओ"

हमारा मित्र जो इतिहास में गहरी जानकार रखता है उसने बहुत कमाल की बात कही।

''अरे सुनो ....तुम लोगों पता नहीं है....जो जन गण मन करते है हम लोग....किसके लिये बना था....देश के लिये ''
वो जोर से हंसा.....''बेवकूफों किताबे पढ़ो.....वो तब बना था जब इंग्लैड के राजा भारत की यात्रा पर आये थे....और उनके स्वागत में ये गीत लिखा गया था.....तुम्हे क्या लगता है रवीद्र नाथ टैगोर को यूं ही नोबल पुरस्कार मिला है.......गांधी को आज तक नहीं मिला''

एक दम सन्नाटा छा गया.....हम तो आज तक जन गण मन गाकर देश को सलामी देते आ रहे थे......लेकिन यही है हमारा भारत भाग्य विधाता.....किसी इंग्लैंड के अत्याचारी को हम भारत का भाग्य विधाता कह रहे थे....


इसीलिए कभी कभी कुछ बातें जानकर दिल दुखी हो जाता है...समझ नहीं आता कि किस इतिहास को लेकर हम चल रहे हैं। कौन सही है कौन गलत है। किसका तर्क सही है किसका गलत....

लेकिन एक बात तो सही है कि हमारी मानसिकता आज भी उभर कर सामने नहीं आई है। हमारे लिये विदेश में जाकर काम करना अपने देश में काम करने से ज्यादा इज्जतदार काम है। विदेश में चाहे होटलों में झाड़ू पोंछा ही क्यों न कर रहे हों। या फिर देश के बाहर मार खाकर पिटकर इज्जत गंवा कर आत्मसम्मान को खोकर कही काम क्यों न  कर रहे हो। क्या यही भारतीयता है। क्या यही देश की इज्जत है। क्या इसीलिए हम अपने देश पर गर्व करने की बात करते है।......

जिनके समझ में आया होगा वो समझ गये होंगे लेकिन क्या करें ...हम भारतीय 'कुत्ते' हैं....जिन्हें अगर कही रोटी दिख रही हो वहां पर पिटने मार खाने के बावजूद दुम हिलाते पहुंच जायेंगे।...शर्मनाक. है ये..... 

कांग्रेसी की मौत से खत्म होगा नक्सलवाद.....

गुरुवार, जुलाई 08, 2010

केंद्र सरकार भले ही नक्सल जैसे कोढ़ को खत्म करने के लिए दृढ़ संकल्प दिखे लेकिन एक सच्चाई ये भी है कि वो इस समस्य़ा स्थाई हल नहीं निकाल सकती है। हिंसा को रोकने के लिये न तो सरकार के पास कोई ठोस योजना है और न ही वो इसका हल चाहती है। नक्सल समस्या की सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि इससे जुड़े लोग वो है जो सरकारी नीतियों और उनसे जुड़े लोगों से त्रस्त हो चुके हैं। गद्दियों पर बैठे लोगों  के लिये नक्सल समस्य़ा ऐसी है जैसे किसी गेंहूं की बोरी में घुन लग गया हो। उन्हे पता है कि गेंहू में घुन लगेगा ही लेकिन वो इसका निराकरण नहीं करना चाहते है। वो सिर्फ यही सोच रहे है कि जब गेंहू पिसेगा तो घुन अपने आप लपेटे में आ जायेगा....

एक कारण ये भी है कि उनके लिये नक्सल समस्य़ा देश की समस्य़ा नहीं है ये सिर्फ उन इलाकों की समस्य़ा है जिनमें ये सिर उठाते हैं। इसका हल तभी निकलेगा जब ये नक्सली किसी नेता को खासकर कांग्रेसी नेता तो गोलियों से भून देंगे। आम लोगों की जिंदगी से न तो नक्सलियों को लेना देना और न ही राजशाही गद्दियों पर बैठी सरकारों की। नक्सल समस्य़ा के लिये सेना के इस्तेमाल न करने की दोगली नीतियों से तो यही लगता है कि नेता इसका हल चाहते ही नहीं है। सीआरपीएफ के जवान नक्सलियों के लिए बॉयलर मुर्गे है...वो इनको उन्ही की तरह काट रहे हैं। और कांग्रेसी नेताओं के मोटी हो चुकी खाल पर खरोच तक नहीं लगी है। ऐसे में उन्हे वो दर्द कहां से महसूस होगा तो सीआरपीएफ जवानों के परिवारो  के दिलों में होता है। सेना चीख रही है कि इस समस्या के हल के लिये उन्हे तैनात किया जाये, लेकिन सफेद धारी कपड़ों में बैठे मंत्रियों को इसका हल नहीं सूझ रहा है। सीआरपीएफ की ट्रेनिंग कैसी भी रही हो लेकिन वो नक्सलियों के गोरिल्ला युद्ध का हल नहीं निकाल पायेंगे। क्यों कि सीआरपीएफ को वैसी ट्रेनिंग नहीं मिली है।

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री को जब अपनी जान पर खतरा महसूस हुआ तो सेना के इस्तेमाल पर हामी भर दी,लेकिन अभी किसी कांग्रेसी की मौत बाकी है जिसके बाद इस समस्य़ा का भी हल हो जायेगा। देश में अब किस नेता की मौत होनी ये देखना अभी बाकी है। अब तो देश के ज्यादातर लोग मनाते है कि किसी आंतकवादी घटना में किसी नेता की ही मौत हो तभी इसका हल निकल पायेगा। इससे पहले तो किसी को खुद पर खतरा महसूस होगा नहीं। हम तब तक अपन हाथ पैर नहीं चलाते है जब तक हमे खुद पर खतरा महसूस न हो जाये। यहीं होगा जब कांग्रेसी नेता मारा जायेगा। मै किसी की मौत नहीं मांग रहा हूं। लेकिन जिस सोच के साथ नक्सल समस्या का हल निकाला जा रहा है वो समझ में नहीं आ रहा है। आखिर हमारे देश के नीति निर्धारक इस समस्य़ा का हल क्या सोच रहे हैं।

और फिर कहते है कि कानून के हाथ लंबे होते हैं.......

सोमवार, जून 07, 2010

23 साल की मुकदमेबाज़ी....हजारों लोगों की मौत और सज़ा सिर्फ दो साल.....अरे इससे ज्यादा साल तो मुकदमा चला है......आखिर क्यों.....क्या चूक रह गयी कि भोपाल की जिस यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से रिसी गैस ने हजारों लोगों को लील लिया उनके आठ दोषियों को इतनी कम सज़ा मिली....आठ में से 7 दोषियों को  दो-दो साल कैद और एक-एक लाख रुपये जुर्माना, और धारा 338 के तहत दो साल की कैद और एक-एक हजार रुपये जुर्माना, धारा 336 में तीन महीने कैद और 250 रुपये जुर्माना, धारा 337 में छह महीने कैद और 500 रुपये जुर्माने की सजा सुनाई......दुख की  बात ये है कि  ये सभी सजाए साथ- साथ चलेंगी......सवाल ये है कि जब सारी सजाए एक साथ ही चलेंगी तो फिर इनका औचित्य क्या है.....


फिर क्यों कहते है कि कानून के हाथ लंबे है.....क्यों कहते है कि इंसाफ देर से ही सही मिलता तो है.....दिल तो उस वक्त दुख गया जब दोषियों में से कुछ को तो तुरंत जमानत भी मिल गयी.....जेब में माल है तो कानून जेब में है.....फिल्मों में अक्सर ये डायलॉग सुना था....यहां तो कुछ ऐसा ही दिख रहा है....भोपाल गैस त्रासदी सिर्फ एक अकेला मामला नहीं है जिस पर आ रहे फैसले से लोगों को कानून से विश्वास उठ रहा है.....एक मामला चंडीगढ़ में भी चल रहा है जहां रुचिका को आत्महत्या के लिए मजबूर करने वाला राठौड़ कानून से हूतूतू खेल रहा है.... ऊपरी तौर पर इस मामले को कोई भी जाने तो मामले को हल्का ही सोचेगा.....आत्महत्या कर ली लड़की ने तो इसपर क्या मामला बनेगा.....कोर्ट ने सजा भी देदी....ये तो बस आंखमिचौली चल रही है ....डेढ़ साल की सज़ा भी वो नहीं काटना चाहता है...सज़ा काट लेगा तो क्या होगा....क्या वो उसका बदला नहीं लेगा...जब उस राठौड़ ने अपनी मनमानी न होने पर बदला लेने की ही नीयत से रुचिका के भाई को घर से उठवा कर पुलिस स्टेशन में फर्जी मामलों में पिटवाता रहा...तो क्या वो फिर बदला नहीं लेगा........सज़ा काफी नहीं है राठौड़ की...वो अगर सज़ा काट भी ले तो काफी नहीं......क्योंकि उसकी इस सज़ा से मानसिक तौर पर कमजोर हो चुके रुचिका के पिता को कुछ हासिल नहीं होगा....वो बेटी खो चुका है,.....बेटा इस हालत में नहीं कि कुछ कर सके.....एक पुलिस का पावरफुल अधिकारी किस हद तक किसी परिवार को तोड़ सकता है ये सामने आया है...और कोर्ट ने मामले पर सिर्फ डेढ़ साल की सज़ा दी.....सवाल है क्यों...


सज़ा सिर्फ आत्महत्या के लिए मजबूर करने की मिली है.....और किसको सिर्फ राठौड़ को....जिसके इशारे पर सब कुछ हो रहा था....ना,......असल गुनहगार राठौड़ नहीं है...गुनहगार तो वो पुलिसवाले है जो रुचिका के भाई को फर्जी मामलों में फंसा कर पीटते थे....इस कदर पीटते थे कि आज वो मानसिक और शारीरिक तौर पर कमज़ोर हो चुका है....और कानून को बड़ा बताने वाले हमारे कोर्ट इस मामले पर डेढ़ साल की सज़ा देते है....यहां मसला सिर्फ किसी जुर्म की सज़ा का नहीं है....जुर्म के पीछे छुपी उस भावना का है जिससे परेशान होकर एक परिवार टूट जाता है....एक लड़की अपने परिवार की हालत देखकर  आत्महत्या कर लेती है.....और आला पुलिस अधिकारी राठौड़ सिर्फ डेढ़ साल की सज़ा पाता है.....उसके बावजूद उसकी पत्नी उसका केस लड़ती है.....कानून से कबड्डी का खेल चल रहा है कभी कानून राठौड़ की टांग पकडता है तो कभी राठौड़ अपने पाले में आ जाता है.....


और फिर कहते है कि कानून के हाथ लंबे होते है.....लंबे हाथ कितनी चपत लगाते है ये भी हम देख रहे है.....

नक्सलवादियों को चाहिये क्या ?

मंगलवार, मई 18, 2010

नक्सलवाद हमारे देश को दीमक की तरह खा रहा है। ये वो दीमक है जो लकड़ी नहीं मासूमों का खून पीता है। दंतेवाड़ा की में बीते दिनों हुए विस्फोट में 50 से ज्यादा लोगों की मौत हो गयी। मरने वालों में बस में सवार यात्री थे। इन यात्रियों में पुलिसकर्मी और कुछ नागरिक थे। नक्सलियों का पुलिस या सुरक्षाबलों से दुश्मनी तो एक बार को समझ में आती है लेकिन आम नागरिकों से क्या दुश्मनी है। इस घटना से पहले सीआरपीएफ पर हमला बोला गया जिसमें 74 से ज्यादा जवानों को शहीद होना पड़ा। इसके पीछे गलती किसी की भी हो लेकिन मारने वालों में नक्सली ही शामिल थे।

आज के समय में नक्सलवाद सिर्फ एक तमगा है मनमानी करने या लूटपाट करने का। आज नक्सली अपने हक के लिये नहीं सिर्फ अपनी धाक के लिये लड़ रहे हैं। सरकार इसमें कुछ नहीं कर सकती है। क्योंकि जितने लोग नक्सलियों से परेशान है उनसे ज्यादा लोग नक्सलियों का सपोर्ट करने वाले है। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि इस युद्ध में कितनी जानें गयी है। ये नहीं कहता कि सिर्फ सुरक्षाबलों की बल्कि उन नक्सलियों की जिनको बहकाया गया है। नक्सलियों  औऱ आतंकवादियों में ज्यादा फर्क नहीं है। दोनों को ही बहकाया गया है, दोनों हिंसा से अपनी बातें मनवाना चाहते है। दोनों के उसूल आम नागरिकों की लाशों से होकर गुजरता है।

परेशानी की बात ये है कि जो लोग इन हिंसक नक्सलियों का समर्थन करते है उनमें ज्यादातर बुद्धिजीवी वर्ग के हैं। इन छद्म बुद्धिजीवियों को कब अक्ल आयेगी कि नक्सलवाद का अर्थ आज बदल चुका है। जिस तरह अहिंसा का अर्थ बदल गया है। आज अहिंसा का मतलब हथियार गिराना या युद्ध न करना नहीं है। आज अहिंसा का अर्थ है हथियारों की संख्या में इतनी बढोत्तरी करना कि दूसरे तुम पर हमला न कर सकें। अपने हक लिये लड़ने वाले नक्सली आज सिर्फ कुछ लोगों की महत्वकांक्षाओं को पूरा करने वाले पुतले बन गये है। ये वो पुतले है जिनको दाना पानी मिल रहा है हिंसा का समर्थन करके, लूटपाट करके, लोगों को मारकर। मार्क्स के नाम पर नक्सल का सपोर्ट करना मूर्खता नहीं तो और क्या है। क्या हम आज के समय में गांधी के विचार पर चल सकते हैं कोशिश करके देखिये। गांधी के हिसाब से चलने के लिये भी हमें पहले हिंसक तरीकों को सोचना होगा। ताकि हिंसा की नौबत ही न आये। क्योंकि ताकतवर से सब डरते हैं और जिनसे हम डरते है उनसे हिंसा की बात सोच भी नहीं सकते। तो एक तरह से देखा जाये तो वो सबसे बड़ा अहिसावादी हो जाता है। औऱ हम भी।

मेरा सोचना पता नहीं दूसरों से अलग है या नहीं पर मैने इस तरह की बात पहले किसी के मुंह से सुनी नहीं। नक्सल पर कुछ लोगों के विचार अलग है वो समर्थन करते हैं। उन्हें नक्सलवादियों पर गोलियां चले तो दुख होता है। वो उनके हक की बातें करते हैं। वो उनके विकास की बातें करती है। पर क्या कोई ये बता सकता है कि बंदूक के दम पर विकास कहां होता है। सरकार भी तानाशाही करती है, नक्सलवादियों को इलाके में रहने वाले लोगों के साथ बहुत बुरा हुआ है। लेकिन इसका ये मतलब तो नहीं हिंसा पर उतारु नक्सलवादियों पर सरकार भी गोलियां चलवाये तो जेएनयू में छात्र छात्रायें उसको तानाशाही कहें। आज के समय में जब नक्सल की एक एक गोली का हिसाब भी मीडिया की खबरों में होता है। पूरे देश की नजरें उन पर टिकी होती है। उन लोगों पर टिकी होती है। ऐसे में विकास की पहल जब सरकार की ओर से होती है तो बंदूके क्यों गूंज रही है।

सरकार की बातचीत की पहल के बावजूद नक्सली क्यों नहीं आगे आने को तैयार है आखिर उन्हे क्या चाहिये। विकास चाहिये, नौकरी चाहिये,खाना चाहिये क्या चाहिये उन्हे। सब के लिये क्या उन्हे वो सब नहीं करना चाहिये जो देश का हर नौजवान कर रहा है। मेहनत, लगन से क्या कुछ हासिल नहीं किया जा सकता। बंदूक उठाकर सिर्फ छीना जा सकता है उसका लुत्फ नहीं उठाया जा सकता है। क्योंकि लुत्फ सिर्फ उसका उठाया जा सकता है जिसको मेहनत से कमाया हो। नहीं तो जो हालत हम दूसरों का अपनी बंदूकों से कर रहे है वैसा हाल हमारा भी किसी न किसी की बंदूकों से होगा। ये नक्सलियों को कभी नहीं भूलना चाहिये।

अंत में सिर्फ यही कहुंगा कि नक्सलवादियों को बंदूक छोड़कर विकास के रास्ते पर चलना चाहिये। सरकार में कमियां है हर कोई कहता है,लेकिन हर कोई बंदूक तो नहीं उठाने लगता है। हर कोई बंदूक उठा लेगा तो समझ जाना चाहिये कि अपनी गोलियां जब खत्म होंगी तब हमें कोई नहीं बचा पायेगा। सरकार का विरोध करना ही है तो गोलियों से नही अपने हक लड़ाई लड़नी चाहिये, लेकिन उसमें बंदूकों से बहता खून नहीं होना चाहिये।विकास के लिये पहल करने का सरकार को एक मौका देकर देखना चाहिये। क्योंकि देश जिस इलाके पर अपनी नजरें गड़ा कर बैठा हो...उसके साथ गद्दारी करने की हिम्मत किसी में नहीं है।

वर्ल्डकप की हायतौबा !

शुक्रवार, मई 14, 2010

टीम इंडिया इस बार तुम टी 20 वर्ल्ड कप लेकर ही आना....फिर लाना है वर्ल्ड कप...फिर जीतेगा टीम इंडिया... वर्ल्डकप से ठीक पहले सारे अखबार सारे टीवी चैनल परेशान थे। टीम तो वर्ल्डकप से बाहर हो गयी लेकिन खबरें अब भी बरकरार हैं....हां ये बात अलग है कि इस बार टीम इंडिया की बखिया उधेड़ी जा रही है....हार के बाद चाहे वो किसी बार में जाये या फिर बीच पर..हर हरकत पर कड़ी नजर है। और सभी को एक ही चश्में देखा जा रहा है। हार के चश्मे से।

भारत की हार से दिक्कत आम भारतीय को है या नहीं पता नहीं...क्योंकि मै तो आज भी ऑफिस आता हूं। अपना काम करता हूं। शायद बाकी लोग भी यही करते है..लेकिन मज़े की बात ये है कि टीवी चैनल्स को सदमा गहरा लगा है। उबर नहीं पा रहे है टीम की हार से। हार के बाद धोनी हंस क्यों रहे है। युवराज ने फ्रेंच दाढ़ी क्यों रखी है। आशीष नेहरा फैंसी टी शर्ट क्यों पहन रहे हैं। हमें परेशानी बहुत होती है। हार का सदमा ऐसा लगा है कि उबर नहीं पा रहे हैं। मैच के हार के कारण कुछ भी हो लेकिन गुनहगार हर कोई खोज रहा है। कोई धोनी तो कोई युवराज बता रहा है। अब इसके गुनहगार को पकड़ना देश की बाकी परेशानियों से ज्यादा बड़ी खबर है। किसी चैनल पर देख रहा हूं कि टीम इंडिया को फटकार कुछ इस तरह पड़ रही है। देश गुस्से में था औऱ टीम पब में थी। ये  बात ठीक है कि शराब पीना सेहत के लिये हानिकारक है तो इसका मतलब ये तो नहीं कि देश को गुस्सा सिर्फ टीम की हार का है। देश तो और भी कई बातों पर गुस्सा होता है। क्रिकेट पर गुस्सा उतार कर क्या करेगा देश.... ये कोई क्यों नहीं सोचता। क्या भारतीय टीम ने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया कभी । मीडिया का गुस्सा टीम की हार से है या आईपीएल मैचों से। मै तो आईपीएल देखना पसंद नहीं करता लेकिन यहां पर गुस्सा आईपीएल से है...न कि वर्ल्ड कप की हार से।

हो सकता है कि गुनहगार धोनी को टीम इंडिया की कप्तानी से भी हाथ धोना पड़े। ये कोई भविष्यवाणी नहीं है। लेकिन जिस तरह के हालात मीडिया बना रहा है ये मुमकिन है। मीडिया में धौनी ने जो भी कहा वो सही कहा। टीम थकी हुई लग रही थी। किसी खिलाड़ी के खेल में उत्साह नहीं झलक रहा था। जीत की ललक नहीं थी। वर्ल्ड कप जैसे मुकाबलों में जीत की ललक न होना शर्मनाक है। ये भी गलत नहीं है कि आईपीएल भी इसका एक बड़ा कारण है। लेकिन इसके पीछे कारण पैसा नहीं है। ज्यादा खेल है। बीसीसीआई पैसे छाप रही है, टीम इसके लिये पैसे छापने की मशीन है। रही बात खिलाडियों के प्रदर्शन की है तो जिन विदेशी खिलाड़ियों ने हमारी पिचों पर जो धमाकेदार प्रदर्शन किया है उन्ही खिलाड़ियों ने वर्ल्डकप में भी अच्छा प्रदर्शन करके अपनी टीम को सफलता दिलवाई है। हमारी टीम में भी सुरेश रैना जैसा उदाहरण है। लेकिन इस पर नजर किसी की नही गयी।

वर्ल्डकप में कौन जीता कौन हारा उससे देश को क्या फर्क पड़ेगा मुझे तो आजतक समझ नहीं आया। यही टीम इंडिया ने जब पहली बार टी 20 वर्ल्ड कप जीता था तो तब भी मै अपने ऑफिस में रोज़ाना के काम पर जाता था औऱ जब टीम आज बाहर हुई तब भी यही कर रहा हूं। सोचता हूं कि टीम जब जीती थी तो कम से कम नोएडा वालों को बिजली और पानी तो 24 घंटे न सही 20 घंटे ही दे देते...अरे टीम इंडिया ने वर्ल्ड कप जीता था यार ट्वेंटी ट्वेटी घंटे ही दे देते...

कल का मैच फिक्स था...चेन्नई का जीतना तय था...

सोमवार, अप्रैल 26, 2010

चेन्नई का जीतना तय था। अब इसे महेद्र सिंह धौनी कि काबिलियत कहें या फिर उनकी किस्मत। चेन्नई सूपरकिंग्स के ओवरऑल परफार्मेन्स पर नजर डालें तो इस बात से कोई मना नहीं कर सकता ही कि मुंबई इंडियंस की टीम चेन्नई से कही ज्यादा मजबूत और अच्छा परफार्म कर रही थी। लेकिन फाइनल में पासा पलट गया। चेन्नई की जीत के नायक रहे सुरेश रैना..मुंबई इंडियस की तरफ से सचिन के अलावा सभी ने धोखा दिया, पोलार्ड ने कुछ अच्छे हाथ दिखाये...लेकिन टीम का उल्टा धौनी यानी सौरभ तिवारी कुछ नहीं कर पाये।

चेन्नई जीत तो उस वक्त ही तय हो गयी थी जब उन्होने टॉस जीता था। आईपीएल के पहला सेमीफाइनल मैच देखने के बाद अगले दो मैचों की भविष्यवाणी तो मैने कर दी थी कि कौन जीतने वाला है। तो फिर धुरंधरों को समझ में क्यो नहीं आ रहा होगा। दोनों सेमीफाइनल औऱ फाइनल मैचों में टॉस ही सारी भूमिका तय कर दे रहा था। टॉस जीतो मैच जीतो। सीधा सा फंडा था जिसको समझने में धौनी गलती नहीं कर सकते ..बस सचिन की किस्मत ने साथ नहीं दिया नहीं तो टॉस के साथ मैच भी वही जीतते। 

इस मैच की जीत के साथ ये तय हो गया कि सचिन कितनी भी कोशिश करले लेकिन उनकी कप्तानी में कोई टीम या कहें कि उनकी उपस्थिति में कोई टीम कप नहीं ला सकती। शायद इसीलियें सचिन ने टी20 मैचो में खेलने से इंनकार कर दिया है। जिस तरह से उनके न रहते हुए टीम ने पहले ही वर्ल्ड कप में चैंपियन बन गयी, सचिन को ये बात खली तो बहुत होगी पर इसके बाद ही उन्होने तय कर लिया होगा कि वो कच्छा क्रिकेट के फॉरमैट में नहीं खेंलेंगे। वरना आईपीएल में बढ़िया प्रदर्शन, और पूरे देश की भावनाओं के साथ सचिन खिलवाड़ नहीं करते।

ऐसा नहीं है कि मै मुंबई इंडियंस का फैन हूं, ऐसा भी नहीं कि चैन्नई सूपरकिंग्स का दुश्मन हूं। पर इतना ज़रुर है कि पिछले दो तीन मैच में मज़ा नहीं आया। सही कहूं तो आईपीएल में कोई भी टीम जीते या कोई भी टीम हारे.इससे न तो मुझे दुख होता है औऱ . न हीं खुशी। हां भारत जब हारता है तो नींद नहीं आती..लेकिन आईपीएल मे कोई भी जीते कोई भी हारे...कोई फर्क नहीं पड़ता। कोई भी जीते कोई भी हारे। फिर भी लोग आईपीएल को पसंद करते है उनकी पसंद की टीम है। लेकिन मै किसी टीम को पसंद ही नहीं कर पाया।सभी में तो अपने खिलाड़ी खेल रहे है। किसे सपोर्ट करुं ये समझ ही नहीं आया। इसलिये मैच को मैच की तरह देखता हूं।

लेकिन पिछले दो मैच तो फिक्स थे। टॉस जीतना मतलब मैच जीतना

क्या मैने सही किया ?

सोमवार, अप्रैल 19, 2010

मीडिया में काम करना काफी थकाऊ होता है। दिन भर की भागदौड़, हर काम को समय से भेजने की तेजी, सभी कुछ। मेरी भी काम की शिफ्ट खत्म हो चुकी थी। थक तो काफी गया था, शाम तीन बजे से रात के 12 बजे तक की शिफ्ट है। काम खत्म करके सीधा घर आ जाता हूं। रास्ते में कही रुकता तक नहीं, सूनसान सड़कें होती है, रुकने का मन ही नहीं करता, सूनेपन से डर लगता है। बाइक पर बैठा सीधे अपने घर की ओर निकल पड़ा, रास्ते में कानों में हेडफोन लगाये मधुर संगीत का आनंद लेते हुए  खाली सड़कों पर लगभग अकेला चला आ रहा था, लगभग अकेला इसलिये क्योंकि इक्का दुक्का गाडियां मुझे और मेरी बाइक को देखती हुई निकल जा रही थी।

बस मेरे घर के पास का आखिरी चौराहा जहां से मुझे अपने कमरे के लिये मुड़ना है। चौराहे पर ही सूनसान रात में एक लड़की एक छोटे से पेड़ के नीचे खड़ी है, मैने दूर से ही देख लिया। रात के अंधेरे में सड़को पर रोशनी करती स्ट्रीट लाइट से छुपती वो लड़की किसी का इंतजार कर रही थी शायद। एक टाटा इंडिका कार जिस पर पीली पट्टी पर काले अक्षरों से नंबर लिखा था वो उसके पास जाकर रुक गयी। सोचा कि हो सकता है कि वो उसमें बैठ जाये। पर नहीं वो नहीं बैठी, वो गाड़ी के ड्राइवर से बात कर रही थी। मै उनको क्रॉस करके आगे चला जा रहा था, मेरी नजर उस लड़की पर थी, पत्रकारों की गंदी आदत नहीं जाती है, कुछ भी संदेहास्पद लगता है तो नज़रे टिक ही जाती है। मुझे एक बार के लिए लगा कि कहीं वो कैब वाले उस लड़की को छेड़ने के लिहाज़ से तो नहीं खड़े है, पर नहीं चिल्लाने की आवाज नहीं आई, पर फिर भी मै रुका, मै पलटा उसे देखने के लिये, वो लड़की सफेद सी दिखने वाली टीशर्ट में थी, अंधेरे में सावला सा दिखने वाला चेहरा था, न ज्यादा पतली ना मोटी, वहां से हिली तक, नहीं कैब वाले से बात कर रही थी।

दिमाग ठनका, मुझे यकीन हो चला की उस लड़की को कोई नहीं छेड़ रहा है, हां वो किसी का इंतज़ार ज़रुर कर रही थी। किसका ये खुद उसे भी पता नहीं होगा, पर हां जिसके पास उसकी कीमत लगाने का माद्दा होगा वही उसे ले जायेगा। उसी का लडकी को इंतजा़र था शायद, मुझे बर्दाश्त नहीं हुआ, पता नहीं क्यों पर मै वहां से सीधे घर न जा सका। आगे ही मैने मोटरसाइकिल पर सवार दो पुलिस वालों को देखा। मै उनके पास गया और उन्हे पूरी घटना बताई। घटना सुनने के बाद उन्हे समझने में देर न लगी कि वो कौन है। या फिर वो यहां क्यों खड़ी थी रात में । पुलिस को खबर करके मै सीधे अपने घर आ गया।

पर एक बात जो मेरे दिमाग में घर कर गयी कि क्या सच में वो लड़की उन्ही लड़कियों में से थी जिनको अपनी कीमत चाहिये होती है। या फिर कोई और थी। क्या मैने  सही किया पुलिस को खबर करके। पुलिस ने जो भी कदम उठाया हो।मुझे नही मालूम पर इतना ज़रूर पता है कि अगले दिन उस जगह पर पेड़ और उसकी छाया तो  थी पर वो लड़की नहीं थी। अब सोचता हूं कि पेट के लिये शायद वो ऐसा करती होगी, खुद को दोषी महसूस कर रहा हूं, सोच रहा हूं कि क्या मैने सही किया ?

शायद अंगूर खट्टे थे.....

शनिवार, अप्रैल 03, 2010

पिछले कुछ दिनों से बीमार हूं तो ऑफिस से छुट्टी ले रखी है। मुझ हर्पीस नाम की बीमारी हो गयी है, डॉक्टर कहती है कि जिस तरह बच्चों में चिकनपॉक्स होता है उसी तरह बड़ों में हर्पीस होता है। उसने कुछ दवाईयां लिखी है जिससे मुझे राहत मिलती दिख रही है। डॉक्टर ने कम्प्लीट बेडरेस्ट की सलाह दी है इसलिये छुट्टी लेनी पड़ी।

दो दिनों से छुट्टी होने की वजह से घर में पूरे दिन बोर हो जाता हूं। शरीर पर हो रहे पकने वाले दानों की वजह शर्ट भी नहीं पहना पाता ठीक है। इसलिये एक कुर्ता पहनता हूं जो काफी ढीला ढाला है। ज्यादा परेशानी नहीं होती है।

मेरे घर के सामने जो पार्क है उसमें पास के सरकारी प्राइमरी स्कूल के बच्चे खेला करते है। मेरा भी मनोरंजन हो जाता है। इन बच्चों के खेल निराले होते हैं। कभी मिट्टी में कूदने लगते है तो कभी टुटे हुए पार्क के झूले से लटकने लगते हैं। उनकी स्कूल यूनिफार्म भी ज्यादा साफ सुथरी नहीं होती, नीली रंग की शर्ट है और नेवी ब्लू पैंट, बेल्ट भी है, यहां तक की टाई भी है लेकिन किसी बच्चे की टाई छित्ती छित्ती हो चुकी है तो किसी की बेल्ट में बकल नहीं है। कुछ बच्चों की शर्ट की बाजुयें इतनी गंदी हो चुकी है कि लगता है कि बाजुओं की रंग काला है। कई दिनों से धुली नहीं है शायद। स्कूल की छुट्टी हो चुकी है लेकिन ये बच्चे खेलने में मस्त है। इन्हे घर जाने की जल्दी नहीं है। हर उम्र के बच्चे इस खेल चौकड़ी में शामिल है।

पार्क में हर तरह के बच्चे है कोई ब्रांडेड जूत पहने हुए है तो किसी के पांव की चप्पलें भी टूटी हुई है। ये जो कैटगरी है ब्रांडेड जूतो वाली, उनके पास अपना खेल का सामान है और ग्रुप भी जिसमें लगभग सभी ने ब्रांडेड जूते पहने है। उनका अलग ग्रुप है। और जब भी ये ग्रुप खेलने आता है। वो प्राइमरी स्कूल के बच्चे वहां से चले जाया करते हैं। उनका जाने का समय हो गया है। दो दो के ग्रुप में वो जा रहे है। एक छोटा बच्चा उम्र यही कोई दो ढाई फुट रही होगी। नीली शर्ट पहनी है जिसमें बाजुओं की बगलों में लाल रंग की सिलाई साफ दिख रही है। पैरों में हवाई चप्पल है, गोल चेहरा, गाल उभरे हुए, रंग सांवला है या कहें कि सांवले से थोड़ा ज्यादा काला है। गालों पर खुश्की के निशान है, बाल रुखे है, बेल्ट नहीं है, टाइ उसने जेब में रखी है, खेलते वक्त रख ली होगी शायद। किताबें नहीं है उसके हाथों में, और वो वापस जा रहा है अधूरा खेल छोड़कर। कभी कभी मुड़कर ब्रांडेड जूते वाले बच्चों की तरफ देखता है..रुकता है...फिर चल देता है घर की ओर। उनकी बॉल उसे पसंद है चमकीली सी।

पार्क के पास कई ठेले वाले अपना सामान बेचने की जुगत में है...आइसक्रीम वाला, अंगूर वाला, केले वाला, और शिकंजी , जलजीरे वाला। सभी मौजूद हैं, पार्क में से कई बच्चे उन ठेले वालो के पास से सामान खरीदते है। ढाई फुट वाला लड़का भी निकलते हुए ठेले वालों के पास जाकर खड़ा हो जाता है। सिर्फ देखता है। कुछ खरीदा नहीं। वो पीछे छूट रहा था तो उसके दोस्तो ने उसे आवाज लगाई, सुंदर...

आवाज सुनकर उसने अपने दोस्तों की तरफ देखा, फिर इशारे से आने की बात कहीं....वो बस चलने ही वाला था कि उसने अंगूर वाले के ठेले से एक अंगूर उठाने की कोशिश की। दुकानदार की नज़र पड गयी। वो चीखा अच्छा चल भाग यहां से। लडका डर गया और उसकी तेज़ आवाज सुनकर सरपट भाग निकला अपने दोस्तों के पास। उनके साथ हो लिया... वो खुश था भले ही उसको वो अंगूर नहीं मिले लेकिन वो हंस रहा था। अपने दोस्तों के साथ बातें करता चल जा रहा था। मै सोच रहा था कि एक अंगूर के लिये भी शाय़द उसके पास कुछ नहीं था। या फिर शायद ये अंगूर उसके लिये खट्टे थे।

दिल तोड़ के ना जा सानिया- भारत

गुरुवार, अप्रैल 01, 2010

सानिया तुमने भारत में रहने वाले हर भारतीय नौजवान का दिल तोड़ दिया। तुम कैसे किसी और की हो सकता है, और वो भी किसी पाकिस्तानी की। क्या भारत में तुम्हारे लायक कोई नहीं बचा था। तुम्हारे जीतने पर हम कितना खुश होते थे। तुम शादी कर रही हो हमारे लिये तो ये ही काफी है दिल तोड़ने के लिये लेकिन तुमने तो हर भारतीय का दिल तोड़ा है। तुम शोहराब से शादी करने वाली थी, हमें सुकुन हुआ कि चलों कि तुम किसी भारतीय से शादी कर रही हो लेकिन तुमने तो पाकिस्तान के क्रिकेट कप्तान शोएब मलिक को अपना मान लिया। अरे ये वही पाकिस्तानी है तो किसी के नहीं हुए, तो तुम्हारे कैसे हो सकते है।


रही बात शोएब मलिक की तो तुम्हारी ही तरह हैदराबाद की रहने वाली आएशा सिद्दीकी को शादी का वादा करके धोखा दिया है। और तुम्हे  बता दूं कि इसी शोएब ने उसे तलाक तक नहीं दिया है। तुम शादी तो कर लोगी लेकिन उसके बाद तुम्हारा क्या होगा। आखिर तो तुम पर हमारा भी कोई हक है।तुम देश की इज्जत हो, तुमने कई बार देश के लिये सम्मान बढ़ाया है। तो अपनी जि़दगी को क्यो बर्बाद कर रही हो। आएशा के पिता ने तो शोएब पर धोखधड़ी का केस डालने जा रहे है, कम से कम अब तो समझों कि ये शोएब मलिक किसा का नहीं है। ये तो तुम्हारी खूबसूरती का दीवाना है, क्योंकि मै समझ सकता हूं, मैने आयशा की एक तस्वीर देखी थी तुमसे अच्छी नहीं दिखती है। लेकिन शादी के बाद तो तुम्हारी खूबसूरती जब ढल जायेगी तब क्या होगा। तब उसका प्यार किसी तीसरी के चक्कर में पड़ जायेगा फिर। फिर तुम तो उसकी दूसरी पत्नी ही कहलाओगी। अरे अभी तुम्हारी उम्र ही क्या है, मेहनत करो खूब खेलो, टेनिस में और पदक जीतो, तुम्हारे लिये कई युवा हाथों में दिल लिये खड़े रहेंगे। फिर पाकिस्तान के इस नामाकूल खिलाड़ी जिसपर मैच फिक्सिंग तक के आरोप लगे है उसके साथ जीवन बिताने का क्या लाभ।

शोहराब तुम्हारे बचपन का दोस्त था। तुमने उसे छोड़ा हमने मान लिया कि चलो कोई बात नहीं, बचपन का दोस्त अच्छा पति बने ये किसी किताब में तो नहीं लिखा लेकिन शोएब मलिक, ये कहां से पसंद आ गया । कम से कम देश के दुश्मन राष्ट्रों के लोगों से तो विवाह मत करों। हमारा दिल  तुमने इसलिये नहीं तोड़ा कि तुम शादी कर रही हो बल्कि इस लिये तोड़ा है कि तुम पाकिस्तान जा रही हो। अब तुम ये न कहना कि तुम पाकिस्तान में नहीं रहोगी, अरे तुम रहो या न रहो तुम्हारा ससुराल तो पाकिस्तान ही होगा। और तुम वहा बिलकुल सुरक्षित नहीं रहोगी। जिस तरह तुम्हारे स्कर्ट पहनने पर यहां का हम सब और  मीडिया मुस्लिम धर्मगुरुओं के कपड़े उतार लेता है, वैसा पाकिस्तान में नहीं होता है। वहां तो तुम्हे बुर्के में ही रहना होगा, और कोई तुम्हारे मनपसंद कपड़े नहीं पहनने देगा। वो तो भारत के लोग है जो तुम्हारे खेल को समझते है, इसलिये स्कर्ट पहनने पर तुम्हारे साथ उठ खडे़ हुए है,सुसराल गेंदा फूल है वहां नहीं सुनी जायेगी किसी की।

मेरी मानों किसी से भी शादी करो लेकिन देश के बाहर मत जाओ, क्योंकि तुम्हारे जाने से ही देश का दिल टूट जायेगा, भले ही तुम कितना भी कहों कि तुम भारत के लिये खेलोगी लेकिन तुम्हारे ससुराल वाले नहीं मानेंगे।
अब भी वक्त है, शोएब से खुद को बचाओ, किसी भारतीय से शादी कर लो अगर करनी है तो। यहां तो उससे भी कई टैलेंटेड क्रिकेटर हैं, इरफान है, युसुफ है,कैफ है, युवराज है धौनी है, किसी से कर लो यार, कहां पाकिस्तान जाने की फिराक में हो। वहां क्या मिलेगा, सिवाय दिनभर धमाकों की आवाजों के।और पिता के दबाव में मत आना हम तुम्हारे प्रशंसक हैं फिर से हर बार की तरह तुम्हारे साथ खड़े हो जायेगें तुम एक बार आवाज लगा के तो देखों, मगर मत जाओ......

बाबा वाबा ना...बाबा ...ना

मंगलवार, मार्च 16, 2010

भक्तों .....सालों......बाद मिले हैं। भगवान हर जगह है हर चीज में है, प्रभु सुबह है तो प्रभु शाम,
ये प्रवचन एक ऐसा प्रवचन है कि जिसका आडियो हर बाबा के मुंह में फिट टेपरिकार्डर में बजता रहता है। भारत में लोगों के पास समय की इतनी कमी है कि भगवान को याद करने के लिये खुद कुछ नहीं करना चाहते। सबने इसके लिये शार्टकट  तरीका अपनाया है। वो क्या है कि हम सबको शार्टकट बहुत पसंद होता है न । चाहे वो मंजिल तक पहुंचने वाली किसी सड़का का हो या फिर पैसे कमाने का। यही नहीं आपमें से ही कई लोगों ने  अपने अपने गुरु भी बना लिये है जो आपके लिये पुण्य का काम करते है। पता नहीं कैसे ? लेकिन पोल तो अब खुलनी शुरु हुई है कि ये गुरु सिर्फ घंटाल हैं। बाबा रखने का फैशन इस कदर बढ़ गया है कि  अब तो आस पड़ोस की महिलाओं में भी कॉम्पटीशन होने लगा है। औऱ बाबा रखना स्टेटस सिंबल हो गया है। जैसे अगर आप आर्ट ऑफ लिविंग गुरु रविशंकर को अपना बाबा या गुरु मानते है तो समझो आप इलीट क्लास है। क्योंकि रविशंकर जी तो आर्ट आफ लिंविग सिखाते है। और इतना पैसा कमाने के बाद कम से कम इस इलीट क्लास को आर्ट आफ लिविंग तो आनी ही चाहिये। उसी तरह योग वाले बाबा रामदेव भी मोटे मोटे और अक्सर बीमार रहने वाले लोगों का इलाज कर रहे हैं। इस क्लास के लोगों को मध्यमवर्गीय कहा जाता है जो एक तरफ तो सरकार से परेशान है तो दूसरी तरफ योग वाले बाबाओं की टिकट की लाइन से। इन बाबाओं में तरह तरह की वैरायटी है, जैसे कृष्ण भक्ति वाले बाबा, भगवान राम वाले बाबा, साई वाले बाबा इत्यादि। और भगवानों की तरह इन बाबाओं की ड्रेस भी अलग अलग होती है। अरे विश्वास नहीं होता तो रोज सुबह सुबह टीवी खोलकर देख लिया करो यार। मेरा सही कम से कम टीवी का विश्वास तो करो , जिस पर विश्वास करके हम आपके घर की महिलायें पगलाये रहती हैं। यही सब तो आता है उसपर । अरे न सिर्फ सुबह बल्कि कई चैनलों पर तो बाकायदा ये बाबा आधे घंटे या एक घंटे का स्लाट लेकर अपना इलेक्ट्रानिक प्रवचन करते हैं, चौबीसों घंटे ।यकीन मानिये इसमें लगने वाला पैसा भी आपकी ही जेब से आता है।

टीवी पर चौबीसों घंटे प्रवचन करने वाले जिस तरह खाली होते है उसी तरह उसको सुनने वालों के पास भी कोई काम नही होता। घरों में स्वेटर बुनते या सब्जियां काटती महिलायें या फिर अपने बिस्तर पकड़े बैठे वरिष्ठ। कई युवा भी होते है जो भगवान से ज्यादा इन बाबाओं पर विश्वास करते हैं, क्योंकि उनको कोई अच्छा मेंटर नहीं मिलता। जो उन्हे सही मार्ग दिखलाये।

लेकिन जिस तरह की घटनाओं के बाद लोगों के विश्वास की धज्जियां उड़ रही है उसके बाद कईयों को तो समझ नहीं आ रहा है कि किया क्या जाये। हर कोई यही सोच रहा है कि अब किसे बाबा बनाया जाये। क्योंकि सीधे भगवान के पास पहुंचने के लिये भी लगता है कि बाबाओं जैसे दलालों की ज़रुरत पड़ गयी है जो रिश्वत लेकर भगवान के दरबार में नकली हाजिरी लगवा रहे है। लेकिन जिन कुकर्मों में इन बाबाओं के नाम आ रहे है। उसे जानने के बाद कम से कम महिलाओं को तो उनसे दूर रहने की नसीहत मिल ही गयी होगी। और इसके बाद वो कहने भी लगी है कि बाबा वाबा न बाबा न। लेकिन हां कुछ पुरुषों ने अपने संपर्क साधने शुरु कर दिये होंगे। अरे उसी टाइप के लोग जो जीवन के इस तरह के आनंद को पाना चाहते है। बाबा जी की तरह वो भी भोग को योग की संज्ञा दे रहे हैं। बाकी आप खुद समझदार है

बचपन की सीनरी वाला भविष्य

शुक्रवार, मार्च 05, 2010

सब कहने लगे कि रात बहुत हो गयी है सोने जाना चाहिये। मै उनको मना तो नहीं कर सकता था। सच में रात बहुत हो गयी थी। पर जिस तरह वो लोग सो गये उसे देखकर लगा कि दिनभर की थकान के बाद आदमी कितना निढाल होकर सोता है। मेहनतश आदमी रात में थकान के बाद अगर पत्थर पर भी सोना चाहे तो सो सकता है। उसे वहां भी अच्छी नींद आयेगी।

रात के 12 बजकर पांच मिनट हो रहे थे। सन्नाटा इतना था कि दीवार पर टंगी घड़ी की टिक टिक भी साफ सुनाई दे रही थी। कभी बांयी करवट लेता तो कभी दांयी करवट लेकिन नींद पता नहीं किस करवट लेटी हुई थी। उस रात तो जैसे मुझे उसने छोड़ दिया था अकेला। रात का चुप्पी को चीरती घड़ी की टिक टिक, मै एकटक दूसरी दीवार पर टंगी सीनरी पर बेसाख्ता देख रहा था। बचपन में बनाई जाने वाली सीनरी से काफी मिलती जुलती थी। उसमें भी पहाड़ थे। जिसका न ओर था और न ही छोर, उन पर हरा रंग लगा था। शायद चित्रकार हरियाली दिखाना चाह रहा था। जिस तेज़ी से पेड़ों की कटाई हो रही है उसे देखकर यहीं लगता है कि कुछ दिनों में इन चित्रों में ही पेड़ों और पहाड़ों के दर्शन हुआ करेंगे। एक के पीछे दूसरा उसके पीछे तीसरा। किसी पहाड़ की चोटी नुकीली है तो किसी की गोल, लगता है कि जैसे किसी पहाड़ में गु्स्सा ज्यादा है और किसी में है ही नहीं। सभी पर पेड़ों की बहार है। देवदार है शायद, क्योंकि जिस तरह ये पहाड़ों के पेड़ एक के ऊपर एक बने हैं ऐसे लगते हैं जैसे अंतरिक्ष में जाने को तैयार राकेट। दूर आसमान में किसी का निशाना बनाये हुए है। चोटी के पास शायद चित्रकार ने कुछ बर्फ भी गिराई है। इसलिये सफेद रंगों का समावेश है।

पहाड़ों का जिक्र हो और उससे निकलती नदी न हो तो लगता ही नहीं कि किसी पर्यावरण दृश्य को निहार रहे है। पहाड़ों के बीच से निकलती नदी है जिसका रंग नीला है। दिन के आसमान की तरह नीला। लगता है कि ये आकाश जैसे इस नदी रुपी शीशे में खुद को निहार रहा है। कभी बायें मुड़ती है तो कभी दायें। इधर उधर मुड़ती हुई सीधे जैसे इस चित्र से बाहर निकलने की तैयारी में है। शायद इन पहाड़ों से निकलती इस नदी को सागर से मिलना है और समुद्र तो इस चित्र में है ही नहीं। तो इसको तो बाहर आना ही है। अक्सर नदियों की आवाज़ को कल कल कल कहते है। लेकिन आज इसने आवाज बदली हुई है लगता है कि कुछ नाराज है इसलिये शांत है। नहीं तो रात के इस सन्नाटे में घड़ी की टिक टिक के साथ इसकी आवाज आती ज़रुर। पर नहीं आ रही है

नदी के एक तरफ एक ऐसा पेड़ है जिस पर मौसम के हिसाब से फल नहीं आया करते है। पसंद के हिसाब से फल आते है। अगर मुझे आम पसंद है तो उसमें पीले रंग का प्रयोग होता था नहीं तो प्रमोद उसमें हल्का लाल रंग करके सेब बताता था। लेकिन नदीं के किनारे का पेड़ हर मौसम में फल देता है, मै तो उसको जब भी अपनी अलमारी की सेफ में से निकालता हूं तो उसके आम ठंड के दिनों में भी ताज़े दिखाई देते है। लेकिन बस उन्हें मै खा नहीं पाता। ये पेड़ ठंड में भी हरा भरा रहता है। प्रदूषण का असर मेरे घर के बाहर खड़े पेड़ को भले सुखा रहे हो लेकिन कागज पर रंगों से उकेरे गये इस पेड़ का हरा रंग कभी फीका नहीं पड़ता है। आम भी हमेशा पीला होता है। हां उसके पास खड़ा लड़का पता नहीं क्यों उसको सिर्फ निहारता रहता है कभी उस पर पत्थर तक नहीं फेंकता है। कई सालों से उसे देख रहा हूं इस चित्र को मैने दसवीं कक्षा में बनाया था तब से लेकर आज तक कई साल हो गये लेकिन कभी इसने एक पत्थर भी उस ताज़े टिमटिमाते आम पर नहीं फेंके। लगता है कि उसे भी पेड़ पर सज़ा ये आम काफी पसंद है इसलिये वो इसको नहीं तोड़ता है।

इस पेड़ तक जाने के लिये नदीं पर एक छोटा सा पुल भी बना हुआ है। उस पुल के नीचे एक बत्तख ने अपना बसेरा बना लिया है। उसका अपना घर है वो ,कई सालो से है वहां। हिलती तक नहीं। डर है कोई कब्जा न कर ले, भू माफिया बत्तखों में भी होते हैं क्या ? नदी पार करो तो एक घर दिखाई पड़ता है। शहरों में तो मैने बहुत घर देखें है लेकिन ये घर कुछ अलग है। हल्के भूरे रंग का है। शायद उसको लकड़ी से बनाया गया है। क्या बताउं वो तो घर जैसा लगता भी नहीं है । ऐसा लगता है कि एक बड़ी झोपड़ी है। जिस पर एक चिमनी लगी है । उसमें सिर्फ एक दरवाजा है दरवाजे के काफी उपर एक खिड़की है शायद ये देखने के लिये कि कौन आया है। हां चिमनी से धुंआं आता रहता है। कुछ पक रहा है शायद। पता नहीं कौन रहता है। कभी उसको देखा नहीं बाहर घूमते हुए। दरवाज़े पर चार कुर्सियां पड़ी हुई है। एक गोल मेज है । दरवाजे के सामने एक छोटा रास्ता है। जो सीधे नदी के उस पुल से जुड़ा हुआ है। लगता है कि पेड़ के पास खड़ा लड़का उसी घर से निकल कर आया है।

इन पंछियों को बहुत दिनों से देख रहा हूं कि ये एक जगह पर रुके क्यों हुये है इनकी तो फितरत है उड़ना, पंखों को ऐसे मोड़ा हुआ है कि जैसे उड़ रहे है लेकिन कभी इस तस्वीर के बाहर न जा सके। इस घर के उपर हवा में पंखों से उड़े जा रहे है। हर पंछी का अपना जो़डा है, होना भी चाहिये नहीं तो एक जगह वो अकेले परेशान हो जायेंगे। इसलिये गिनती के आठ बनाये है। रंग उनका गाढ़ा भूरा है। चील या बाज होंगे शायद। पता नहीं। सूरज का रंग भी कुछ ज्यादा गाढा़ लाल हो गया है। शायद उसका अंत निकट है। लगता है कि सूरज घायल है उसका बचना मुश्किल है इसलिये खून में लतपथ आसमान में अपने आखिरी क्षण गिन रहा है। घर के बाहर की घास काफी हरी भरी है। अरे उसमें तो एक लाल आखों वाल खरगोश छुपा हुआ है कुछ खा रहा है शायद, नज़र नहीं आया, अच्छा है नहीं तो उसे भोजन करने कुछ परेशानी हो जाती ।

अरे लो देखते देखते शाम भी हो आयी है सूदूर दिखने वाला पृथ्वी का अंतिम छोर, वहां लगता है कि होली खेली जा रही है। काफी रंग आसमान में फैले है। कहीं लाल है उसके ऊपर गुलाबी, पीला, आसमानी नीला। और वो भी खत्म होते जा रहे है। अंधेरे का काला रंग किसी ने इस तस्वीर पर डाल दिया है। लेकिन अब भी वो बच्चा उस आम को निहार है जबकी उसको मै देख तक नहीं पा रहा हूं पता नहीं उसे कैसे नज़र आ रहा होगा कुछ।

होली की ठिठोली

रविवार, फ़रवरी 28, 2010

होली हैभाई होली है..बुरा न मानो होली है। इन शब्दों से जुड़ी कई यादें है जिनको याद करके बहुत भावुक महसूस करता हूं। होली एक अकेला ऐसा त्यौहार है जिसमें पाकर खुद को बहुत खुश महसूस करता हूं। होली में कोई बंदिश नहीं रहती है, धूप में सूख रहे पापड़, चिप्स हो या किचन में बन रहे रसगुल्लों पर भी । इनकी खुशबू से पता चल जाता है कि होली का महीना चल रहा है। मौसम मे भीं थोड़ी ठंडक रहती है तो दूसरी ओर गर्मी की धूप दस्तक दे रही होती है। पंखे भी आवाज लगा रहे होते है कि अब उनको चलाने का वक्त हो गया है। हवायें तेज़ी से सूखे पत्तों को हटाकर नई कलियां खिला रही होती हैं। पिता जी के चीनी मिल से ज़ुडे होने के कारण गन्नों से लदी गाडियों के शोर और उन पर लदे तरह तरह की वैरायटी वाले गन्ने की मिठास से ज़बान तो मीठी होती ही है मन भी मीठा हो जाता है।

यूं तो इस साल होली की तारीख एक मार्च है लेकिन सच मानिये हम और आपके स्कूलों में तो होली तीन चार दिन पहले ही शुरु हो जाती थी। क्लास मै बैठे बैठे अपने आगे वाली सीट पर बैठे बच्चे के सिर पर रंग डालकर पीछे से हट जाने का मज़ा अलग ही होता है। मज़ा तब और आता है जब उसको जाकर खुद बताओ कि उसके सिर पर किसी ने रंग डाल दिया है। थोड़ी सी नाराज़गी के बाद वही होता है कि बुरा न मानो होली है।

होली की छुट्टियों के शुरु होने के आखिरी दिन क्लास खत्म होने बाद मस्ती की जो पाठशाला शुरु होती है उसके रंग तन पर तो छपते ही है साथ साथ जीवन भर के लिये मन के कोने पर छाप डालते हैं। एक के पीछे रंगों की थैली लेकर भागना फिर, उसको पकड़कर पूरी तरह से रंगीन बना देना, आहहह..याद करता हूं तो काफी अच्छा लगता है। कोई लौटा देता वो प्यारे दिन तो वापस जीवन की गाड़ी को मोड़कर उस कालेज की सड़क पर खड़ा कर देता जहां पर जल्दी भागने वाले साथियों को पकड़ पकड़ कर रंगों से नहलाया करता था।

सुबह सुबह तेल लगाकर बाहर निकलने के बाद जब तक थक कर गिरने न लगे तब तक रंगों में डूबा रहना अब नहीं होता है। होली के दिन छुपे छुपे घूमने वालों को निकाल निकाल कर रंगने में अलग ही मज़ा है। लेकिन होली में सबसे बड़ी मुसीबत होती है स्कूल या कालेज की परीक्षायें जिनके शिड्यूल भी या तो होली एक दो दिन पहले से होते हैं या होली के दो दिन बाद, लेकिन होली की मस्ती थोड़ी देर के लिये उस मानसिक दबावों को भुलाने का मलहम जैसी लगती है।

पिछले कुछ सालों में ज़रुरत के हिसाब से होली की मस्ती में भी सावधानी का तड़का लगने लगा है। समय बदला है इसलिये हमें कुछ बातों में सावधानी तो बरतनी ही चाहिये। पक्के रंगों का प्रयोग से बचना चाहिये क्योंकि ये हमारी त्वचा को बहुत नुकसान पहुचाते है। जिस तेजी से हम और आपको पानी की कमी से जूझना पड़ रहा है तो हमें इस बात के लिये भी थोड़ी सावधानी रखनी चाहिये कि पानी का कम इस्तेमाल करें। इस बार होली में सूखे रंगों का प्रयोग करें पानी का इस्तेमाल कम से कम करें,ताकी पानी को बचाया जा सके।

1411 एक टाइगर की फरियाद

शुक्रवार, फ़रवरी 26, 2010






हैलो दोस्तों, कैसे हैं आप लोग। कैसी कट रही है ज़िंदगी। पहचान कौन....अरे नहीं पहचान पा रहे है। ये मै हूं। हो सकता है की तस्वीर देखकर कुछ याद आ जाये।

पहचाना, अरे मै वो बड़ा वाला नहीं हूं , वो तो मेरी मम्मा है। मै हूं छोटू टाइगर। हम दोनों आज घूमने निकले है पप्पा काम काज के चक्कर में अक्सर बाहर रहते है। आज बहुत दिनों बाद हम घूमने निकले है। क्या करें आजकल डर का माहौल इतना बन गया है कि घर से निकलना दूभर हो गया है। आपको तो पता ही होगी कि आतंकवाद इतना बढ़ गया है । मेरी मम्मा पप्पा मुझे घर से बाहर कम ही जाने देते है। वो कहते हैं कि बाहर बुरे लोग हैं। पता नहीं कौन बुरा है। मैने तो आजतक नहीं देखा ऐसा कोई। मुझे तो लगता था कि हमसे सब डरते हैं। जंगल में सारे मुझसे डरते है क्योंकि मेरे पापा बहुत ताकतवर है। ये देखों एक फोटो मैने पापा की खींची है शिकार करते हुए दांयी ओर।

देखा कितने ताकतवर है मेरे पापा इसी वजह से तो जंगल के सभी जानवर मुझसे डरते है। लेकिन पता नहीं पिछले कुछ सालों से दूसरों को डराने वाले हम खुद डर के माहौल में जी रहे है। और इसका कारण है कि आप लोग। देखो बुरा मत मानना लेकिन इसका कारण सिर्फ और सिर्फ आप लोग है। कौन कहता है कि आतंकवाद से सिर्फ मानवों का नुकसान हुआ है। हमारा भी नुकसान हुआ है। देखो आप लोगों ने ही हमारे साथ इतना बुरा किया है कि आज हमारी संख्या कम होती जा रही है। और सही बात दिल से कहूं तो जो आंकड़ें सरकार बता रही है उससे कही ज्यादा कम हमारी संख्या है।हमारे देश पर हमला हुआ ओर हमने कई नंबर बांट दिये। मुंबई पर हमला हुआ तो सबने 26/11 का नाम दे दिया। संसद पर हमला हुआ था तो हमने उसको 13/12 का नाम दे दिया। यहां तक की जब अमेरिका पर हमला हुआ तो सबने उसे 9/11 का नाम दिया। लेकिन कोई हमारी तरफ क्यों नहीं देखता। ये सरकार अच्छी है कि उसने शायद हमारी संख्या को बढ़ाकर 1411 कर दिया ताकी लोगों के ज़ेहन में ये बात बनी रहे जिस तरह बाकी नंबरों की यादें टिकी हुई है। अब आप ही सोचिये कि आंतकवादियों के हमले के बाद सबने उसमें मरने वाले लोगों को श्रंद्धांजली दी थी। यहां हमारे लोग मारे जा रहे हैं उस पर किसी का ध्यान नहीं गया। हमारे जैसे बाघों की पूछ करने वाले लोग कहां है यहां जो हमारा ख्याल रखा जाये।
अब क्या कहूं किससे शिकायत करुं। ये सरकार भी तो अपनी नहीं है कि हमारे लोगों के लिये कुछ करें। आपसे क्या कहुं आपको क्या पता अपने परिवार को खोने का दर्द क्या होता है। आप तो अपने शौक के लिये हमारा कत्ल किये जा रहे है। लेकिन आपको क्या पता कि जब मेरे दादा जी का शिकार किया गया था तो मै कितना रोया था। मेरे सर पर से मेरे दादा जी का साया उठ गया। आपके एक शौक ने मुझे लोरियां और कहानी सुनकर सोने से वंचित कर दिया। कभी कभी उस मंजर को सोचता हूं तो दिल दुखी होता है लेकिन क्या करुं कुछ कर भी तो नहीं सकता हूं क्योंकि उसके पीछे कारण क्या है आप भी अच्छी तरह जानते है और मै भी, आपको उस दिन की तस्वीरे दिखाता हूं, जिस दिन मैने उनकी लाश देखी थी उस दिन मै बहुत रोया था। आप भी देखिये उनकी तस्वीर।
अब तो इस वजह से हमारे परिवार की फैमिली प्लानिंग भी बदल गयी है। पहले मम्मी पप्पा मेरे भाई बहन की बातें करते थे लेकिन अब तो मै अकेला ही बचा हुआ हूं क्योंकि आप लोगों ने प्रदूषण को इतना बढा़ दिया है कि मेरे दो भाई बहन स्वर्ग सिधार गये। मै अकेला पड़ गया हूं। क्या करुं अब तो मां घर से बाहर नहीं निकलने देती है। मुझे याद है कि किस तरह मै और मेरे भाई चूहों का शिकार करते थे। खरगोश पकडा करते थे। उसमें मज़ा तो था ही खाना भी अच्छा था। अब तो कभी कभी भूखे भी दिन गुजारना पड़ता है।जंगल में इतनी भयानक आवाज गूंजती है कि मेरे दिल की धड़कन तेज हो जाती है। मां कहती है कि वो मानवों की आवाज है। पहले सोचता था कि जंगल में हमारी आवाज ही सबसे खतरनाक मानी जाती है लेकिन पहली बार मम्मा ने बताया कि वो मानवों की आवाज है। मै तो डर के मारे उनसे दुबक जाता हूं। लेकिन मैने एक बार झांडियों से छुपकर देखा था कि वो आवाज एक लंबी सी नली से आती है न की उनके मुंह से। लेकिन जैसी भी आवाज आती है भयानक तो आती ही है, उसके बाद हमारे लोगों का कत्ल भी होता है। रोता हूं जब उनको तड़प तड़प कर मरते देखता हूं।

आपको कुछ और भी बताना चाहता हूं। मेरी मम्मा ने एक बार चुपके से रात में मेरे भाई को दुनिया में लाने की बात की थी। लेकिन मेरे जिम्मेदार पप्पा ने उनको मना कर दिया। उनका कहना था कि उनकी जाति का अंत निकट है। एक तरफ लोग दुनिया के खत्म होने की बात साल 2012 में सभी कर रहे हैं लेकिन यहां तो पप्पा ने पहले ही अपने बच्चों को दुनिया में लाने से मना कर दिया। अच्छा है इसे कहते है जिम्मेदार पापा। आखिर कौन पिता चाहेगा कि उसके बच्चे दुनिया में आकर मानवों के शौक के लिये मारे जायें। अरे हम तो दूसरे जानवरों को मारते है लेकिन क्या करें वो हम अपनी भूख मिटाने के लिये करते है, लेकिन मनुष्यों ने तो हमें अपने शौक के लिये मारना शुरु कर दिया है, ये देखिये

इसमें अब आप लोग ही कुछ कर सकते है। आप लोग हमें बचाने के लिये मदद का हाथ बढ़ायें। हैती के भूकंप में तो आपने बहुत दान दिये है। कम से कम हमें बचाने के लिये भी कुछ कीजिये। आप मेरी घटती संख्या के बारे में बात कर सकते हैं। बाघ की खाल से बनी चीज़ों का बहिष्कार कर सकते हैं। क्योंकि आपके इस कदम से हमारे शिकार में कमी होगी। सरकार से भी कुछ अपील करना चाहता हूं कि प्लीज मेरे शिकार पर लगाम लगाई जाये। जब आप जैसे नेताओं को जेड श्रेणी की सुरक्षा मिल सकती है और पचास से ज्यादा सुरक्षाकर्मी आपकी सुरक्षा में लगे रहते है तो कम से कम आप मेरी सुरक्षा के लिये जंगल में सुरक्षाकर्मियों की संख्या बढ़ा ही सकते है।
आपसे अपील करता हूं कि आप मेरी रक्षा करें। क्योंकि मेरी मम्मा कहती है कि मनुष्य ही हमारे लिये बड़ा खतरा है ये पर्यावरण नहीं। पप्पा के पिता जी की मौत के बाद तो उन्होने ये मानना शुरु कर दिया है कि हमारे लिये तो आप ही आतंकवादी है। इसलिये आपसे तहेदिल से अपील कर रहा हूं कि मुझे मत मर मारो मै जीना चाहता हूं।




क्रिकेट का सुपरमैन !

बुधवार, फ़रवरी 24, 2010

सचिन तेंदुलकर को क्रिकेट का सुपरमैन कहें तो इसमें कोई दूजी राय नहीं हो सकती है। हां ये अलग बात है कि वो पैंट के उपर चढ्ढी नहीं पहनते है। लेकिन जिस तरह सचिन विरोधी टीम पर हावी होते है उससे इतना होता ही है कि कोई भी गेंदबाज उन्हें गेंद फेंकने से पहले अपनी पैंट को कस कर ज़रुर बांध लेता होगा।

साउथ अफ्रीका के साथ इस माइक्रोमैक्स मोबाइल कप के दूसरे वनडे में सचिन द्वारा बनाये गये नाट आउट दो सौ रनों की पारी मेरे ज़ेहन में तब तक रहेगी जब तक मेरी सांसे चलेंगी। दुनिया का हर क्रिकेट प्रेमी या खिलाड़ी जानता है कि सचिन की नकल अगर कोई कर सकता है तो वो सिर्फ सचिन तेंदुलकर ही है

सचिन की ये पारी उनके साथ साथ भारत के हर क्रिकेट प्रेमी के लिये अहम है। क्योंकि जब हमारी जेनरेशन अपने बुढापे को देख रही होगी तो कम से कम हम अपने बच्चों को ये कह सकते है कि हमने सचिन की वो पारी देखी थी जिसमें सचिन ने वन डे मैच में दोहरा शतक जमाया था। 

सचिन जैसे खिलाड़ियों को देखना अपने आप में बहुत बड़ी उपलब्धी है। क्योंकि जिस खिलाड़ी का करियर बीस साल लंबा हो और जिस पर कभी खेल भावना का अपमान या किसी भी प्रकार का कोई आरोप न लगा हो, उसको खेलते देखना अपने आप में सुखद अनुभूति है। सचिन ने अपनी पारी में यही कोई पच्चीस चौके लगाये होंगे साथ ही तीन छक्के भी। लेकिन ऐसा नहीं है कि उन्होने कभी इतने चौके या छक्के नहीं लगाये। पहली ही गेंद से लगने लगा था कि सचिन तेंदुलकर हो न हो कम से कम सैंचुरी मारकर ही जायेंगे। ये बात  सिर्फ इसलिये नहीं कह रहा हूं  क्योंकि मै सचिन का फैन हूं पर इसलिये भी क्योंकि पहली बार मुझे लगा कि आज सचिन शतक मारकर जायेगा। अक्सर मै पहले ही डर जाता था कि सचिन कहीं आउट न हो जाये, पर  ऐसा बिलकुल नहीं लगा यहां तक की सचिन के दोहरे शतक के करीब पहुंचने के बाद भी। इसको एक इत्तेफाक भी कह सकते है।

सचिन के दोहरे शतक में जितना बड़ा हाथ सचिन तेंदुलकर का है उससे भी ज्यादा बड़ा हाथ उनके साथ साझेदारी निभाने वाले दिनेश कार्तिक, युसुफ पठान, और महेंद्र सिंह धौनी का है। सचिन ऑस्ट्रेलिया के खिलाफ भी दोहरे शतक को तोड़ते नजर आ रहे थे लेकिन दूसरे छोर से विकटों की पतझड़ ने एक दबाव पैदा कर दिया था इसी के साथ सचिन तेज़ खेलने के चक्कर में अंट शंट शाट खेलकर विकेट गंवा बैठे। लेकिन इस मैच में ऐसा बिलकुल नहीं हुआ। आज उनकी किस्मत में दोहरा शतक जमाना लिखा हुआ था।  सचिन ने ये दोहरा शतक नाबाद बनाया है यहीं नहीं उनको कोई जीवनदान तक नहीं मिला। पचास ओवर खेलने के बाद भी सचिन तेंदुलकर दो रनों के लिय भाग रहे थे। ये उनकी फिटनेस का नजारा था।

सचिन बिना दबाव के रन बनाते चले गये, जैसे ही सचिन सैचुरी के करीब आये उन्होने सिंगल,डबल पर भरोसा जताया, जब दोहरे शतक के करीब आये तब भी उन्होनें सिंगल डबल से ही अपना दोहरा शतक पूरा किया, इस तरह की बल्लेबाजी उनके एक्सपीरियंस को दिखलाती है। सचिन के बीस साल के करियर में एक समय ये भी आया था जब उनसे पारी की शुरुआत न करने की सलाह ने सचिन के साथ साथ सभी को हैरत में डाल दिया था,लेकिन सचिन की इस उम्र में खेली जा रही पारियों को देखकर कहीं से नहीं लग रहा है कि उनकी उम्र क्रिकेट से सन्यास लेने की हो रही है। सचिन की उम्र वाले ज्यादातर खिलाड़ी संयास लेकर क्रिकेट को देखना ही पसंद करते है लेकिन ये सचिन ही है जिनकी रनों की भूख आज भी वैसी ही है जैसी क्रिकेट के शुरुआती करियर में थी।

आने वाली पीढ़ी के लिये नई चुनौती पेश करने वाले सचिन रमेश तेंदुलकर के रिकॉर्ड  तब तक नहीं टूटेगा जब तक घुंघराले बालों वाला तेंदल्या अगले जन्म में क्रिकेट के मैदान में नहीं उतरेगा।

किस्मत क्या है ?

बुधवार, फ़रवरी 17, 2010

मन दुखी है इसलिये कुछ ऐसा लिख रहा हूं जिसको पढ़कर हो सकता है कुछ लोगों को अजीब लगे। ये भी हो सकता है कि कुछ लोग मेरी बातों से सहमत हो। लेकिन जो मेरे साथ  हो रहा है उसको देखकर पता नहीं क्यों मुझे महसूस हो रहा है कि जो लोग किस्मत को बलवान बताते है शायद वो सही कहते है।

बहुत दिनों से बेकार घर बैठने के बाद एक जगह से कॉल तो आई नौकरी के लिये, हां ये बात अलग है कि उस कंपनी की हालत खराब है और वहां पर लोगों को तीन तीन महीने से सैलरी के दर्शन तक नहीं हुए है, लेकिन फिर भी पता नहीं क्यों वहां से आये बुलावे ने मुझे वहां जाने के लिये मजबूर कर दिया। सोचा था कि जहां से करियर की शुरुआत हुई  और वहीं से लगभग अंत भी..तो मुझे लगा कि क्यों न जब एक और शुरुआत वहीं से करने को मिल रही है तो मौके का इस्तेमाल करना चाहिये। लोगों ने बहुत समझाया कि वहां जाना ठीक नहीं है, लेकिन घर बैठकर बेकार की बातें सोचने से अच्छा कहीं पर बिना सैलरी के काम करना है। वो भी तब जब आप खाली बैठे हों।

बुलावे पर चले तो गये,पर हालत सामान्य नहीं थे। बाकायदा वहां के एच आर से बात भी हुई, उन्होने इंटरव्यू भी लिया, चलो यहां तक तो ठीक था। अगले दिन ज्वाइनिंग का दिन था। ज्वाइनिंग का फार्म मेरे हाथ में था, मै उसको भरने ही जा रहा था कि अचानक मेरे फोन की घंटी बज उठी। मुझे फिर से एच आर के ऑफिस में तलब किया गया। वहां से मुझे वो अपने साथ न्यूज रुम की ओर ले गये। जहां पर बैठे ज्यादातर लोग मेरे जानकार थे। और शायद ज्यादातर शुभचिंतक भी। मुझे इंचार्ज से मिलवाया गया औऱ बस मै उनसे शिफ्ट की बात करने ही वाला था कि......

एक फोन बज उठा और उसको उठाने वाले व्यक्ति ने मुझको बताया कि एक बार फिर से मुझे एच आर के ऑफिस में बुलाया गया है। अब इस बार जो होने वाला था उसका मुझे अंदाज़ा कम ही था। क्योंकि जब आपके सामने सब कुछ ठीक चल रहा हो औऱ चीज़े फाइनल दौर में हो तो आल इज वैल...यहीं लगता है।

एचआर मुझसे पहले किसी और से बातों में मशगूल था। उनके बाद मेरा नंबर आया। कुछ देर चुप रहने बाद एच आर बोले
" शशांक देखो ऐसा है कि आपका समय बर्बाद करने के लिये सॉरी,
मैने पूछा क्यों सर क्या हुआ
देखो ऐसा है कि तुमसे पहले किसी को बुलाया था, पहले वो नहीं आ रहा था लेकिन अब आ गया है तो मै आपको अभी ज्वाइन नहीं करवा सकता हूं।

एक बार के लिये मै सन्न रह गया लेकिन फिर अपने आप को संभाला और एक सवाल दाग दिया
ठीक है सर पर..ये तो आपकी बात हुई...अब सच क्या है ये बता दीजिये

देखो शशांक तुम तो जानते हो..कभी कभी लगाई बुझाई की वजह से हमें नीचा देखना पड़ता है। अब क्या कह सकते है इससे ज्यादा। बस तुम्हारा समय खराब करने के लिये माफी मांग सकता हूं। इतना कह सकता हूं कि फिलहाल तुमको नहीं रख सकते।


मै उनके इस जवाब के बाद चुप हो गया और चुपचाप उनके कैबिन से निकल कर बाहर आ गया, न सिर्फ बाहर बल्कि बिलकुल बाहर। उनके इस जवाब के बाद मुझे ज्ञात हो गया कि हो न हो किसी ने मेरे खिलाफ कोई न कोई साज़िश रच डाली है। न्यूजरुम में बैठे मेरे शुभचिंतक लगने वाले लोगों में से कोई न कोई मेरा दुश्मन था जो मुझे पसंद नहीं करता। लेकिन सच कह रहा हूं आज तक कभी मैने किसी को अपना दुश्मन नहीं होने दिया है।

इस घटना के बाद अब सोचने को मजबूर हो गया हूं कि ये कैसा किस्मत का खेल चल रहा है। एक तरफ सब ठीक होता नज़र आता है तो दूसरी तरफ राजनीति का शिकार होता मै। किसको दोष दूं खुद को, कंपनी की पालिसी को या फिर उस आदमी को जिसने मेरे खिलाफ साजिश रची  है।

क्योंकि पहले मै वहां पर काम कर चुका हूं इसलिये मेरे काम के बारे में वहां काम करने वाले लोग अच्छी तरह से जानते है। लेकिन अब किया भी क्या जा सकता है क्योंकि जिस देश का राजा निरंकुश हो वहां की हालत अच्छी कैसे रह सकती है। उसका को सर्वनाश उन्ही के पिछलग्गू ही करते है

वैलेंनटाइन्स डे और विरोधी

शनिवार, फ़रवरी 13, 2010

लो फिर आया  प्यार का त्यौहार.... 14 फरवरी  यानी वैलेंनटाइन्स डे। वैलेनटाइन्स डे और उसके विरोधियों का तो जैसे चोली दामन का साथ है। हर साल इसी दिन प्रेमी प्रेमिका को लाल गुलाब देता है तो वही दूसरी तरफ विरोधी भी प्रेमी जोड़ों के गालों पर लाल निशान भी दे देते है। यही दिन है जब एक ओर तो प्रेमी जोड़े हाथों में गुलाब लिये प्यार का इज़हार करते है तो दूसरी तरफ हाथों में तलवार लिये .संस्कृति के 'रक्षक'.....ओह माफ करियेगा.. राक्षस भी जोड़े बनाये रहते है।  जिन्हें अपनी राजनीति चमकानी है वो गिद्ध नज़र बनाये रहते है...और हमारे लैला मजनू खुद को बचाने के लिये पेंड़ों के पीछे घोंसले बनाये रहते है। अब क्या कहें पुरातन काल में ये वही समय था जब मुरली मनोहर सांवरे कृष्ण  गोपियों संग रास भी रचाया करते थे। लेकिन क्या करें ये विरोधी भी  यही समय होता है ख़ुद की उपस्थिति दर्ज कराने का  साथ ही अपनी राजनीति चमकाने का। आखिर ये कौन लोग हैं जो समाज को संस्कृति का पाठ पढा रहे हैं । क्या कभी इन्होने भगवान कृष्ण के बारे नहीं सुना। जहां आज कल लोगों के पास इतना समय नहीं होता कि वो अपने परिवार के साथ कुछ पल बिता लें  वहीं इन लोगों के पास इतना फालतू समय है कि ये लोग काम धाम छोड़कर हाथों में बैनर लिए... नारे लगाते हुए गलियों में , सड़कों पर और पता नहीं कहां कहां चक्कर लगाते है।

एक बात समझ के परे है कि ये लोग तब कहां रहते है जब बलात्कार के आरोपियों को सालों  साल सजा तक नहीं मिल पाती। आखिर ये कौन लोग हैं जो समाज को संस्कृति का पाठ पढ़ाते हैं । कितना जानते है ये विरोधी... जो वैलेनटाइन डे का विरोध करते है। इस विषय में सिवाय इसके कि ये पश्चिमी सभ्यता का पर्व है कितना जानते है ?  हीर रांझा, सोहनी महिवाल, राधा कृष्ण का नाम तो इज्जत लेते है...लेकिन रोमिया जूलियट का नाम इनके दिलों में चुभता है। तालिबान की रीति या नीति का विरोध तो बहुत करते हैं पर क्यों नहीं सोचते की अंजाने में  या फिर जानकर भी हम उन्हीं के नक्शे कदम पर चल रहे हैं।

शिवसेना और शाहरुख़ 'ख़ान'

बुधवार, फ़रवरी 03, 2010

क्या इंडियन प्रिमियर लीग इस बार भी सुखद तरीके से हो पायेगा। क्योंकि जिस तरह नीलामी के बाद से ही बबाल मचना शुरु हो गया है उसे देखकर लगता है कि आईपीएल के वापस भारत में होने वाले जो एडवर्टीज़मेंट बेकार हो जायेंगे है। शिवसेना जिसका दूर दूर तक किसी भी खेल से कोई वास्ता नहीं है उसको भी इस मामले पर नया मसाला मिल गया है। शाहरुख ने पाकिस्तानी खिलाड़ियों को खरीदने की बात क्या की...शिवसेना का भारत प्रेम जाग गया। मजेदार बात ये है कि ये वहीं शिवसेना है जिनके यहां पर कभी पूर्व पाकिस्तानी कप्तान जावेद मियांदाद बाकायदा भोजन पर बुलाये गये थे।

शिवसेना प्रमुख और उनके पुत्र उद्धव ठाकरे ने शाहरुख को तो देशद्रोही तक मानने लगे है और पाकिस्तानी खिलाड़ियों के मुद्दे पर किंग खान को माफी मांगने को कह डाला है। शाहरुख ने भी माफी न मांगने दम्भ भरा है। क्योंकि ये तो सौ फीसदी सत्य है कि शाहरुख ने पाकिस्तानी खिलाड़ियों को खरीदने की बात कही थी, लेकिन इसके पीछे का कारण है खिलाडि़यों की उपलब्धता। कोई भी टीम ये नहीं चाहती है कि उनके खिलाड़ी टीम के लिये उपलब्ध न हो सके। इसलिये किसी भी टीम ने पाकिस्तानी खिलाड़ियों को खरीदने में रुचि नहीं दिखाई।

लेकिन सवाल ये है कि क्या पाकिस्तानी खिलाडि़यों को खरीदना ज़रुरी है या नहीं। और अगर ज़रुरी है तो वो इसलिये क्योंकि वो इस वक्त ट्वेंटी ट्वेंटी चैम्पियन है। चैम्पियन होने के नाते पाकिस्तानी खिलाड़ियों को तवज्जो न मिलना इस बात को दर्शाता है कि कोई न कोई दूसरा कारण ज़रुर है जिसकी वजह से उन खिलाड़ियों को नहीं खरीदा जा रहा है। टीमें अपना कारण बता चुकी है शाहरुख भी इसी कारण से अपना पक्ष रख चुके है। शाहरुख के अपने पक्ष ने ही उनको मुसीबत मे डाल रखा है। शिवसेना जैसी कट्टरपंथी सिर्फ इसलिये ही दबाव बना रहे है क्योंकि इसमें पाकिस्तानी खिलाड़ियों का नाम है । हां ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों का भी विरोध हो रहा है लेकिन शिवसेना का मुख्य मकसद पाकिस्तान के नाम पर शाहरुख को लपेटना है क्योंकि उनका नाम शाहरुख खान है। औऱ ये बात किसी से छुपी नहीं है कि शिवसेना किस कदर कट्टरपंथी है।

पाकिस्तानी खिलाड़ियों को न लेना या लेना इससे उन्हे कोई फर्क नहीं पड़ता है। ये पाकिस्तानी खिलाड़ियों का लालच है जो न लेने पर उन्हें बैखलाये दे रहा है। पाकिस्तानी खिलाड़ियों के लेने या लेने के मुद्दे पर हर कोई इस मुद्दे पर एक दूसरे के पाले में डाल रहा है क्योंकि इस मामले में पाकिस्तानी खिलाड़ियों का नाम है। अगर कोई और देश होता तो शायद इतना बबाल न होता। पाकिस्तान से भारत की दुश्मनी सालों से चली आ रही है लेकिन आज के मुद्दे पर ये कहना है कि मुंबई पर हुए हमले की वजह से पाकिस्तानी खिलाडियों को न लिया जाए। अपनी जगह सही है लेकिन शाहरुख को गलत ठहराना कि वो पाकिस्तान जाकर बस जायें, ये तो शिवसेना द्वारा  हिंदुत्व की गलत परिभाषा है। शाहरुख को सिर्फ मुस्लिम होने की वजह से निशाना न बनाया जाए। अगर दिक्कत थी तो पहले आईपीएल में क्यों नहीं शिवसेना जैसी कट्टरपंथी पार्टियों ने अपना विरोध दर्ज कराया।

रही बात पाकिस्तान की तो उनसे तो सभी तरह के संबंध तोड़ लेने चाहिये। चाहे वो खेल हो राजनीति है या व्यवसाय। क्योंकि जो देश हमारे खिलाफ षडयंत्र रचता रहता है उससे किसी प्रकार का संबंध गलत होगा। लेकिन शिवसेना की बात की जाये तो उनकी सोच एक दूसरे को हमेशा काटती है। कभी वो पश्चिमी सभ्यता के विरोध में वैलेंनटाइंस डे का विरोध करते है तो दूसरी तरफ माइकल जैक्सन के साथ गलबहियां करते नज़र आते है तो कभी पाकिस्तान के साथ क्रिकेट खेलने के विरोध में पिच ही खोद डालते है, लेकिन यहां भी मियांदाद को खाने पर बुलाते है।

अब इसे क्या कहें, इन सवालों पर जवाह चाहे जो भी निकल कर सामने आये लेकिन इस मुद्दे पर यही कहना ठीक होगा कि शिवसेना इस पर खालिस राजनीति कर रही है। और इसी की आड़ में अपने छद्म हिंदुत्व की रोटियां सेंक रही है और कुछ नहीं।

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