काहे की लेखिका...आजकल तो ट्रेंड ये है कि लेखक को लेखक तभी माना जाता है जब आप विवादित बातों पर लिखकर विवाद पैदा कर सकें। लेखक होने का मतलब ये तो नहीं कि देश के एक हिस्से को देश से अलग ही बता देना।अरुंधति के कश्मीर के बयान से इतना ही कहा ही जा सकता है कि या तो वो पागल हो गई है या फिर वो उनमें से है जिन्हें विवादित विषयों पर बोलने में काफी आनंद आता है। कभी कभी तो ये भी दिमाग में आता है कि कहीं ऐसा तो नहीं उनकी अगली किताब कश्मीर पर आ रही है। क्या कोई भी भारतीय इस बात से इनकार कर सकता है कि कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं है। अरुंधति के भाई बंधु भी छद्दम बुद्धिजीवी बनकर आम जन से बात करने गए हैं। दिलीप पडगांवकर तो खुद को कश्मीर का रहनुमा ही समझ रहे हैं।कश्मीर के अलगाववादी तो ये कहने भी लगे है कि दिलीप उनसे इत्तेफाक रखते हैं। गिलानी ने तो कहा ही है कि दिलीप साहब के विचार बाकी नेताओं से हटकर है। अरे भाई हटकर क्यों नहीं होंगे आखिर वो भी तो गिलानी साहब की हां में हां मिला रहे है।
सवाल है ये नहीं है कि अरुंधति जैसी विवादित लेखिका या फिर छद्म बुद्धिजीवियों का तीन सदस्यीय दल कश्मीर में कैसे कैसे बयान दे रहा है। सवाल ये है कि कश्मीर की आम जनता कैसी आजादी की बात कर रही है। कैसे आज़ादी चाहती है कश्मीर की जनता। हुर्रियत जैसे अलगाववादी पार्टियां और गिलानी और मीरवाइज जैसे नेता दूसरा जिन्ना क्यों बनना चाहते है । कश्मीर उसी दिन आज़ाद हो गया था जिस दिन भारत आजा़द हुआ। उस के बाद से वो भारत के अभिन्न हिस्से की ही तरह है। कश्मीर जैसी ही मांग पंजाब में भी उठी थी। लेकिन पंजाब के लोगों ने ऐसी आवाज़ों का मुंहतोड़ जवाब दिया। आखिरकार हुआ क्या पंजाब प्रदेश भारत का सबसे संपन्न प्रदेशों में से एक बन गया। लेकिन कश्मीर में हालात इसलिये ज्यादा खराब हो रहे है क्योंकि वहां के नेता ही नहीं चाहते कि कश्मीर भारत का हिस्सा रहे। इस काम में पाकिस्तान में बैठे उनके आका मदद कर रहे है। और कश्मीर की भोली भाली जनता उनके इशारों पर नाच रही है। ऐसे में सेना या सुरक्षाबलों की सख्ती को यही नेता गलत बताते है। और इसके सख्ती के विरोध में आतंक का खेल खेला जाता है।
कश्मीर को कैसी आजादी चाहिये। क्या वो अलग देश बनना चाहता है। या फिर पाकिस्तान में जुड़ना चाहता है। पाकिस्तान में शामिल होकर क्या मिलना है ये तो आए दिन देखने को मिल ही रहा है।कभी कराची दहलता है तो कभी लाहौर हिल जाता है। ऐसे में पाकिस्तान में जुड़ने से कम से कम फायदा तो नहीं होने वाला कश्मीरियों को। कश्मीर की आम जनता हर गली नुक्कड़ पर जमावड़े ,सभाओं में आज़ादी की बात कर रही है। आजादी पाकर अलग राष्ट्र बनकर भी कुछ हासिल नहीं होने वाला है। कश्मीर का जितना क्षेत्रफल है या जितनी आबादी है या कहे कि शिक्षा का जो स्तर है उसे देखकर तो यही कहा जा सकता है तथाकथित आज़ादी मिलने के बाद भी कश्मीरियों को उत्पीड़ना का ही सामना करना पड़ेगा। केंद्र सरकार द्वारा भेजे गये तीन सदस्यी बेवकूफ मंडली की बातों का तो पता नहीं लेकिन इतना ज़रूर तय है कि भारत की मुख्य धारा से जुड़कर ही कश्मीर की प्रगति मुमकिन है।
अरुंधति हो या गिलानी ऐसे लोग आज़ादी या उत्पीड़न की बात तो कर सकते है लेकिन सही तरीके से इसका हल नहीं बता सकते है,निकालने की बात तो छोड़ ही दीजिए। कश्मीर में क्यों नहीं विकास की बातें होती है।क्यों नहीं शिक्षा के लिये स्कूल खोलने की बात होती है। विकास इसलिये नहीं हो रहा है क्योकि इन्ही अलगाववादियों ने ही कभी नहीं चाहा कि कश्मीर के युवा इस बात को समझ सकें कि विकास चिल्लाने या गला फाड़कर आज़ादी मांगने से नहीं आता। बल्कि विकास आता है सही दिशा में मेहनत और सही सोच से। नेता तो हमेशा से अपना फायदा सोचते हैं। इन्हें वो कुर्सी नज़र आ रही है जो शायद इन्हें तथाकथित आज़ादी के बाद मिल सकती है।
बात अगर अरुंधति की करें तो ऐसे लेखिकाओं को बकवास करने से पहले सोच समझ लेना चाहिये कि वो क्या बोल रही है। माओवाद का मुद्दा गर्म हुआ तो माओवादियो के पक्ष में बोलना शुरू कर दिया,जब कश्मीर की बात आई तो कश्मीर के नाम पर भारत देश को ही गरिया दिला। अरुंधति को ये समझना पड़ेगा कि किताब लिखने से समझ पैदा नहीं हो सकती है।
मेरे बारे में
- शशांक शुक्ला
- नोएडा, उत्तर प्रदेश, India
- मन में कुछ बातें है जो रह रह कर हिलोरें मारती है ...
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अरुंधति और कश्मीर समस्या या विवाद
बुधवार, अक्तूबर 27, 2010प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 1:34 pm
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1 टिप्पणियाँ:
बिलकुल ठीक कहा. यदि इस 'लेखिका' के मन में तथाकथित आजादी चाहने वालों के मानवीय अधिकारों के लिए इतना प्रेम उमड़-घुमड़ रहा है तो फिर वह उन लाखों कश्मीरी पंडितों के बारे में क्यों नहीं बोलती या लिखती जिन्हें अपने ही घरों से निकल दिया गया. क्या उनके मानवीय अधिकार मानवीय नहीं?
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