मैं एक दिन शाम को बाज़ार में घूमने निकला । सोचा कि चल कर कुछ खा पी लें । अगर आप कहीं जाए तो खाने पीने का मन तो अक्सर हो ही जाता है मेरे साथ तो ऐसा ही है। मै जलेबी के मज़े ले ही रहा था कि कहीं से एक छोटा सा पिल्ला कहीं से आ गया। मेरी ओर ऐसे घूर रहा था कि जैसे मुझे जानता हो।मैने भी उस देखा जब उसे लगा कि मै उसे देख रहा हूं तो कुत्ते की कभी सीधी न होने वाली पूंछ यूं हिली जैसे उसके पीछे बैठे किसी आदमी को हवा चाहिए हो और कुत्ता हवा कर रहा हो।मै समझ गया कि हो न हो ये मेरी जलेबियों पर नज़र गड़ाये बैठा है। मैने बड़े ही सख्त अंदाज उसे डांटा और मुंह फेर कर जलेबी का स्वाद लेने लगा। मैने थोडी देर बाद फिर देखा कि वो अब भी मुझे कातर निगाहों से देख रहा था।मुझे भी इस बार दया आ गई मैने जलेबी की एक टुकड़ा उसकी तरफ फेंका वो कुत्ता लपकने ही वाला था कि पास में ही मैले कुचैले कपड़ों में खड़ी एक छोटी सी बच्ची ने उसे भगा कर जलेबी के टुकड़े को खा लिया वो टुकड़ा ज़मीन पर गिरकर मटमैला भी चुका था। मैने फिर उस छोटी बच्ची को थोड़ी सी जलेबी दे दी और मुंह दूसरी तरफ फेर कर खड़ा हो गया और जलेबी खाने लगा। लगभग 2 मिनट बाद मेरी नज़र उन पर पड़ी तो मैंने उन कुत्तों पर जलेबी फेंकनी चाही जैसे ही मै मुड़ा मेरी आंखे फटी रह गई मुझे समझ नही आया कि मै क्या करुं। मुझे समझ नहीं आया कि क्या मैने सही किया था उन्हें जलेबी खिलाकर या गलती का ज़िम्मेदार किसे ठहराऊं। जैसे ही मै पलटा मैने देखा कि एक तरफ चार से पांच कुत्ते मेरी तरफ देख रहे थे कि और वहीं दूसरी तरफ कातर निगाहों से कुछ छोटे बच्चे मैले कपड़ों में मेरी ओर उन कुत्तों से भी ज्यादा अपेक्षाओं से देख रहे थे।अब समझ नहीं आया कि मै किन्हें उन जलेबियों को खिलाऊं।मै किसकी तरफ उन जलेबियों को बढ़ाऊं।पर मुझे ज्यादा सोचने की जरुरत नहीं पड़ी मैने उन जलेबियों को छोटे बच्चों को दे दी ये सोचकर कि वैसे अगर जलेबियों को कहीं भी दूं खाना तो इन बच्चों ने ही है।
मेरे बारे में
- शशांक शुक्ला
- नोएडा, उत्तर प्रदेश, India
- मन में कुछ बातें है जो रह रह कर हिलोरें मारती है ...
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"ये जलेबियां किसे दूं"
गुरुवार, मार्च 26, 2009प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 12:58 pm 0 टिप्पणियाँ
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