दीपावली यानी पैसा खर्च = ख़तरा ख़रीद

शनिवार, अक्टूबर 17, 2009

दीपावली के शुभ अवसर पर लेख को शुरु करने से पहले सभी पढ़ने वालों को दीपावली की शुभकामनायें, और हां ये दीपावली बस आज के लिये ही नहीं है ये तो बीते हुये कल से लेकर आने वाले दो दिनों तक चला करती है। यूं तो मेरी उम्र तेईस साल ही है लेकिन बचपन की याद आ ही जाती है, मुझे याद है कि दीपावली के दो दिन पहले से ही मिठाइयों के ढेर लग जाया करते थे साथ ही पटाखों की लिस्ट तैयार हो जाया करती थी। हर बार ये प्रतियोगिता हुआ करती थी कि मेरे दोस्तों के यहां ज्यादा पटाखे आये है या मेरे यहां। हर बार ज़िद करके पटाखों में जितने पैसे पिछले साल फूंके थे उससे ज्यादा का बजट इस बार तैयार हो जाया करता था। पापा कितना भी मना करें लेकिन हर साल पटाखों की संख्या साल दर साल बढ़ती जाती थी। मुझे याद है हम अपने घर से ज्यादा चाचा के पास जाकर दीपावली मनाना ज्यादा पसंद करते थे क्योंकि चाचा पटाखों के शौकीन थे, वो हर तरह का पटाखा जलाना चाहते थे चाहे वो पैराशूट हो या सेवन शॉट या फिर टेन शॉट, उस वक्त इन्हीं नामों से पटाखे आया करते थे। दो दिन पहले ही पटाखे लाना फिर उनको दीपावली के दिन तक धूप में सुखाना फिर शाम होते ही समेटकर सूटकेस या किसी बैग में भर लेना ये रुटीन हुआ करता था। दीपावली के दिन तो जैसे सिर्फ पटाखा जलाना ही मकसद ही बचा रह गया था। शाम को सबसे पहले इंतजार होता था कि जल्दी से पूजा का कार्यक्रम समाप्त हो फिर पटाखे जलाने का कार्यक्रम शुरु । शुरुआत होती थी पटाखों में सबसे बड़े और नये पटाखे को जलाकर, इसी के साथ पटाखा फोडू प्रतियोगिता शुरु । रात के बारह बजे तक पटाखे फोड़ने का प्रोग्राम चलता रहता था। सिर्फ पटाखे जलाते रहना ही मजेदार नहीं होता, जब तक सामने से कोई फायर न हो मतलब ये है कि पटाखए जलाने में प्रतियोगिता हुआ करती थी।सभी पड़ोसियों से पटाखे जलाने का कांम्पटीशन होता था, अगर वो कोई बम फोड़ते थे तो उनसे बड़ा बम हमें भी फोड़ना होता था नहीं तो हार मानी जाती थी।

दीपावली की रात पटाखे जलाने के बाद अगले दिन फिर वही रुटीन शुरु, पटाखे धूप में सुखाये फिर रात में जलाये। ये दीपावली अगले दो दिन लगातार चला करती थी। दीपावली के अगले दिन तो ज्यादा रोचक काम सभी बच्चे किया करते थे, जो पटाखे किसी कारण से नहीं फट सके थे उसे इकट्ठा करने का काम, ये काम कुछ लोगों के लिये गंदा हो सकता है लेकिन उस वक्त वो बड़ा ही रोचक खेल था बचे हुए बिना फटे हुए पटाखों को इकट्ठा करके उनका बारुद निकालकर उन्हें कागज में रखकर जलाना। उसमें भी ख़तरा तो था ही लेकिन मज़ा भी बहुत आता था।

लेकिन आज सोचता हूं तो दुख होता है। जब अपने कुछ दोस्तों के चेहरे और उनके हाथों को देखता हूं तो सारा मज़ा काफूर हो जाता है और दिल सहम जाता है। एक डर दिल में बैठ जाता है कि ये त्यौहार खतरों के खेल जैसा क्यों हो गया है, क्यों पटाखों के खेल में हम खुद को ख़तरे में डाल देते हैं। जब पटाखे जलते है तो उनमें रोशनी होती है लेकिन उन्ही रोशनियों में जलते हुए मेरे एक दोस्त की आखों की रोशनी चली गई थी। वो अब हर साल दीपावली के दियों को ठीक से देख तक नहीं पाता, दुख होता है ,लेकिन क्या करें अब कुछ नहीं हो सकता है।

हमें दीपावली पर इस बात का ध्यान ज़रुर देना चाहिये कि पटाखे हमारे लिये कितना बड़ा खतरा है, साथ ही इससे हमारे पर्यावरण को भी कितना नुकसान होता है, इसका पता हमें उस वक्त नहीं चलता जब हम ठीक होते है और हमारे साथ कोई दुर्घटना नहीं होती है ये हमें तब पता चलता है जब हमें पटाखे जलाने का मज़ा सज़ा के रुप में मिलता है। तो इस दीपावली में सब मिलकर पटाखों से तौबा करें ये हमें प्रण लेना होगा। पटाखों को खरीदने से पैसों की बर्बादी तो होती ही है साथ ही हम पैसों में खुद के लिये खतरा खरीदते है और कुछ नहीं। हमें समझदारी से काम लेना होगा, पर्यावरण को बचाये पटाखो से तौबा करें, खुशियां मनाये पर पटाखों के साथ नहीं कहीं ऐसा न हो कि आज का मज़ा कल के लिये सज़ा बन जाये।SAY NO TO CRACKERS

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