सब कहने लगे कि रात बहुत हो गयी है सोने जाना चाहिये। मै उनको मना तो नहीं कर सकता था। सच में रात बहुत हो गयी थी। पर जिस तरह वो लोग सो गये उसे देखकर लगा कि दिनभर की थकान के बाद आदमी कितना निढाल होकर सोता है। मेहनतश आदमी रात में थकान के बाद अगर पत्थर पर भी सोना चाहे तो सो सकता है। उसे वहां भी अच्छी नींद आयेगी।
रात के 12 बजकर पांच मिनट हो रहे थे। सन्नाटा इतना था कि दीवार पर टंगी घड़ी की टिक टिक भी साफ सुनाई दे रही थी। कभी बांयी करवट लेता तो कभी दांयी करवट लेकिन नींद पता नहीं किस करवट लेटी हुई थी। उस रात तो जैसे मुझे उसने छोड़ दिया था अकेला। रात का चुप्पी को चीरती घड़ी की टिक टिक, मै एकटक दूसरी दीवार पर टंगी सीनरी पर बेसाख्ता देख रहा था। बचपन में बनाई जाने वाली सीनरी से काफी मिलती जुलती थी। उसमें भी पहाड़ थे। जिसका न ओर था और न ही छोर, उन पर हरा रंग लगा था। शायद चित्रकार हरियाली दिखाना चाह रहा था। जिस तेज़ी से पेड़ों की कटाई हो रही है उसे देखकर यहीं लगता है कि कुछ दिनों में इन चित्रों में ही पेड़ों और पहाड़ों के दर्शन हुआ करेंगे। एक के पीछे दूसरा उसके पीछे तीसरा। किसी पहाड़ की चोटी नुकीली है तो किसी की गोल, लगता है कि जैसे किसी पहाड़ में गु्स्सा ज्यादा है और किसी में है ही नहीं। सभी पर पेड़ों की बहार है। देवदार है शायद, क्योंकि जिस तरह ये पहाड़ों के पेड़ एक के ऊपर एक बने हैं ऐसे लगते हैं जैसे अंतरिक्ष में जाने को तैयार राकेट। दूर आसमान में किसी का निशाना बनाये हुए है। चोटी के पास शायद चित्रकार ने कुछ बर्फ भी गिराई है। इसलिये सफेद रंगों का समावेश है।
पहाड़ों का जिक्र हो और उससे निकलती नदी न हो तो लगता ही नहीं कि किसी पर्यावरण दृश्य को निहार रहे है। पहाड़ों के बीच से निकलती नदी है जिसका रंग नीला है। दिन के आसमान की तरह नीला। लगता है कि ये आकाश जैसे इस नदी रुपी शीशे में खुद को निहार रहा है। कभी बायें मुड़ती है तो कभी दायें। इधर उधर मुड़ती हुई सीधे जैसे इस चित्र से बाहर निकलने की तैयारी में है। शायद इन पहाड़ों से निकलती इस नदी को सागर से मिलना है और समुद्र तो इस चित्र में है ही नहीं। तो इसको तो बाहर आना ही है। अक्सर नदियों की आवाज़ को कल कल कल कहते है। लेकिन आज इसने आवाज बदली हुई है लगता है कि कुछ नाराज है इसलिये शांत है। नहीं तो रात के इस सन्नाटे में घड़ी की टिक टिक के साथ इसकी आवाज आती ज़रुर। पर नहीं आ रही है
नदी के एक तरफ एक ऐसा पेड़ है जिस पर मौसम के हिसाब से फल नहीं आया करते है। पसंद के हिसाब से फल आते है। अगर मुझे आम पसंद है तो उसमें पीले रंग का प्रयोग होता था नहीं तो प्रमोद उसमें हल्का लाल रंग करके सेब बताता था। लेकिन नदीं के किनारे का पेड़ हर मौसम में फल देता है, मै तो उसको जब भी अपनी अलमारी की सेफ में से निकालता हूं तो उसके आम ठंड के दिनों में भी ताज़े दिखाई देते है। लेकिन बस उन्हें मै खा नहीं पाता। ये पेड़ ठंड में भी हरा भरा रहता है। प्रदूषण का असर मेरे घर के बाहर खड़े पेड़ को भले सुखा रहे हो लेकिन कागज पर रंगों से उकेरे गये इस पेड़ का हरा रंग कभी फीका नहीं पड़ता है। आम भी हमेशा पीला होता है। हां उसके पास खड़ा लड़का पता नहीं क्यों उसको सिर्फ निहारता रहता है कभी उस पर पत्थर तक नहीं फेंकता है। कई सालों से उसे देख रहा हूं इस चित्र को मैने दसवीं कक्षा में बनाया था तब से लेकर आज तक कई साल हो गये लेकिन कभी इसने एक पत्थर भी उस ताज़े टिमटिमाते आम पर नहीं फेंके। लगता है कि उसे भी पेड़ पर सज़ा ये आम काफी पसंद है इसलिये वो इसको नहीं तोड़ता है।
इस पेड़ तक जाने के लिये नदीं पर एक छोटा सा पुल भी बना हुआ है। उस पुल के नीचे एक बत्तख ने अपना बसेरा बना लिया है। उसका अपना घर है वो ,कई सालो से है वहां। हिलती तक नहीं। डर है कोई कब्जा न कर ले, भू माफिया बत्तखों में भी होते हैं क्या ? नदी पार करो तो एक घर दिखाई पड़ता है। शहरों में तो मैने बहुत घर देखें है लेकिन ये घर कुछ अलग है। हल्के भूरे रंग का है। शायद उसको लकड़ी से बनाया गया है। क्या बताउं वो तो घर जैसा लगता भी नहीं है । ऐसा लगता है कि एक बड़ी झोपड़ी है। जिस पर एक चिमनी लगी है । उसमें सिर्फ एक दरवाजा है दरवाजे के काफी उपर एक खिड़की है शायद ये देखने के लिये कि कौन आया है। हां चिमनी से धुंआं आता रहता है। कुछ पक रहा है शायद। पता नहीं कौन रहता है। कभी उसको देखा नहीं बाहर घूमते हुए। दरवाज़े पर चार कुर्सियां पड़ी हुई है। एक गोल मेज है । दरवाजे के सामने एक छोटा रास्ता है। जो सीधे नदी के उस पुल से जुड़ा हुआ है। लगता है कि पेड़ के पास खड़ा लड़का उसी घर से निकल कर आया है।
इन पंछियों को बहुत दिनों से देख रहा हूं कि ये एक जगह पर रुके क्यों हुये है इनकी तो फितरत है उड़ना, पंखों को ऐसे मोड़ा हुआ है कि जैसे उड़ रहे है लेकिन कभी इस तस्वीर के बाहर न जा सके। इस घर के उपर हवा में पंखों से उड़े जा रहे है। हर पंछी का अपना जो़डा है, होना भी चाहिये नहीं तो एक जगह वो अकेले परेशान हो जायेंगे। इसलिये गिनती के आठ बनाये है। रंग उनका गाढ़ा भूरा है। चील या बाज होंगे शायद। पता नहीं। सूरज का रंग भी कुछ ज्यादा गाढा़ लाल हो गया है। शायद उसका अंत निकट है। लगता है कि सूरज घायल है उसका बचना मुश्किल है इसलिये खून में लतपथ आसमान में अपने आखिरी क्षण गिन रहा है। घर के बाहर की घास काफी हरी भरी है। अरे उसमें तो एक लाल आखों वाल खरगोश छुपा हुआ है कुछ खा रहा है शायद, नज़र नहीं आया, अच्छा है नहीं तो उसे भोजन करने कुछ परेशानी हो जाती ।
अरे लो देखते देखते शाम भी हो आयी है सूदूर दिखने वाला पृथ्वी का अंतिम छोर, वहां लगता है कि होली खेली जा रही है। काफी रंग आसमान में फैले है। कहीं लाल है उसके ऊपर गुलाबी, पीला, आसमानी नीला। और वो भी खत्म होते जा रहे है। अंधेरे का काला रंग किसी ने इस तस्वीर पर डाल दिया है। लेकिन अब भी वो बच्चा उस आम को निहार है जबकी उसको मै देख तक नहीं पा रहा हूं पता नहीं उसे कैसे नज़र आ रहा होगा कुछ।
18 टिप्पणियाँ:
बढ़िया शशांक
ऐसे ही लिखते रहो...
बढ़िया शशांक
ऐसे ही लिखते रहो...
बढ़िया शशांक
ऐसे ही लिखते रहो...
बढ़िया शशांक
ऐसे ही लिखते रहो...
बढ़िया शशांक
ऐसे ही लिखते रहो...
Prince of Persia Warrior Within
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Prince of Persia Warrior Within
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सॉरी भाई मेरे सिस्टम में कोई वायरस आ गया है... बार बार जाने क्या हो रहा है...। अब ये कमेंट हट भी नहीं रहे...
सॉरी भाई मेरे सिस्टम में कोई वायरस आ गया है... बार बार जाने क्या हो रहा है...। अब ये कमेंट हट भी नहीं रहे...
Bahut achha likhte hain aap!
अरे हिमाचली भाई ठीक करवाओ इसे,कमाल है यार
बधाई। आपकी यह पोस्ट आज दिनांक 12 मार्च 2010 के दैनिक जनसत्ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में दृश्य में भविष्य शीर्षक से प्रकाशित हुई है। यदि आप इसका स्कैनबिम्ब चाहते हों तो अपना ई मेल पता avinashvachaspati@gmail.com पर भेजिएगा।
शुक्रिया अविनाश जी,मुझे तो ज्ञात ही नहीं था,आपने मुझे इसकी जानकारी दी,मुझे खुशी है
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