हमारी गढ़मुक्तेश्वर यात्रा
काफ़ी लम्बी चौड़ी प्लानिंग के बाद आख़िरक़ार कहीं जाने बाहर जाने को सब तैयार हुए । इंस्टीट्यूट में सभी ने इस ट्रिप के लिए फट से हामी भर दी। हामी के कई कारण थे जैसे कई लोगों ने तो ऐसे पारम्परिक मेले का आनन्द कभी उठाया ही नहीं था । ऐसे लोगों को इस मेले में जाना काफी रोमांचकारी लग रहा था । मेले की तारीख़ थी 13 नवंबर हर साल की तरह इस बार भी भारी भीड़ आने की पूरी उम्मीद थी । इसिलिए हम सभी लोग मानसिक रुप से पूरी तरह तैयार हो चुके थे। सुबह करीब 7 बजे गढ़ के लिए निकलने का प्लान तैयार हुआ । अब कहीं जाने का कोई प्लान तैयार हो और उसमें अड़चने न आयें ऐसा तो कम ही देखने में आता है। पहली दिक्क़त आई गाड़ी की जो जल्दी ही दूर हो गई । फिर लोगों के देर से आने का सिलसिला 9 बजे तक जारी रहा। तब जाकर कहीं गंगा मईया की कृपा से हमारा सफ़र शुरु हुआ। रास्ते में लगने वाली भूख का ख़याल तो हमारे ऋषि सर ने ध्यान रख ही रखा था, वो पहले से ही सैंडविच से भरे दो डब्बे ले आए थे । अब वो तो थोड़ी देर बाद ही ख़त्म हो गये । पर सफर की शुरुआत तो हो चुकी थी , हमारा पहला पड़ाव पड़ा ग़ाज़ियाबाद के डासना टोल टैक्स पर, हमारी गाड़ियों के ड्राइवर तो ऐसे गाड़ी चला रहे थे जैसे वो फार्मूला वन में रेसिंग कर रहे हों , तो मुमकिन है हम सभी से आगे निकल आये थे । सभी को साथ लेकर चलने के लिए हमने रुकना ही बेहतर समझा । धीरे धीरे सभी की गाड़ियां पहुंचने लगी , सबसे अंत में आई ऋषि सर की गाड़ी , हम समझ सकते हैं कि उस ड्राइवर को तेज़ चलाने का मौका ही नहीं मिला होगा क्योंकि "यहां होल्ड करने की ज़रुरत है" कह कर उन्होने कई जगह गाड़ी रुकवा ही ली होगी। अब मुझे भी कुछ होल्ड करने की ज़रुरत है । टोल टैक्स देने के बाद हम आगे बढ़े, रास्ते में हमें कई ट्रैक्टर , जुगाड़ गाड़ी , और अपने अपने वाहनों पर लोग आते जाते दिखाई दे रहे थे , उनकी गंगा मईया की जयकारों से ये पता चल रहा था कि वे लोग गढ़मुक्तेश्वर से आ रहे थे। उन्हें जोश को देख कर हमें पता चल गया की हम कितने भी मार्डन क्यों न हो जाए लेकिन हमें अपनी सांस्कृतिक परम्परा को नहीं भूलना चाहिए क्योंकि यही हमारी असली पहचान है । गढ़ की यात्रा जैसे जैसे आगे बढ़ी हम अपनी सालों पुरानी सभ्यता का भी ज्ञान होता गया ।
चाहे दिन भर घर भूखे रह लें पर जब भी कभी किसी यात्रा पर निकलो , भूख जैसे ख़त्म ही नहीं होती तो हम फिर रुके, यहां की बात ज्यादा नहीं करुंगा क्योंकि यहां खाने में इतने़ व्यस्त रहे की कुछ याद नहीं रहा । आगे बढ़ते हैं ; हम रास्ते में गाने गाते हुए आगे बढ़ते गए रास्ते में गढ़ गंगा में डुबकी लगाकर लौट रहे लोगों के जत्थे लगातार मिलते रहे। लगभग 4 घंटे की लम्बी यात्रा के बाद हम सारे गढ़मुक्तेश्वर पहुंच गये। वहां पर पहले से ही मौजूद हमारे मित्र ने वहां का सारा इंतज़ाम कर रखा था । यहां से शुरु होता है हमारा असली सफ़र क्योंकि गंगा नदी का तट वहां से लगभग 15 किलोमीटर का दूरी पर है और वहां तक पहुंचने का कोई ख़ास साधन भी नहीं है। मेले का समय होने के कारण यहां पर भारी भीड़ थी। गाड़ी से जाना मुमकिन ही नहीं था तो हम सबने पैदल ही जाना ज़्यादा उचित था। तो सबने अपनी गंगा तट तक की यात्रा शुरु कर दी । पतला सा रास्ता और उस पर भैंसा गाड़ियों, ट्रैक्टर,जुगाड़ गाड़ियों का रेला इतना ज़्यादा था कि वहां तो पैदल चलना ही बहुत बड़ा काम था । कभी रास्ते पर तो कभी खेतों में चलते हम सभी लोगों की हालत पतली हो रही थी पर एक दूसरे से आगे रहने के काम्पटीशन के चक्कर में सारे बस चलते चले जा रहे थे। रास्ते में गन्ने के खेत मिले बस कुछ लोग तो उसे देखते ही उस पर टूट पड़े । करीब 10 से 12 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद हम सब गंगा के तट पर पहुंच गये । वहां पर पारम्परिक मेला लगा हुआ था। लोग उस मेले का जमकर आन्नद उठा रहे थे। वहीं पास में गधों,खच्चरों घोड़ियों का भी मेला लगा था, जहां बहुत दूर दूर से लोग अपने जानवरों को बेचने लाए थे। यकीन मानिए उस वक्त इन खच्चरों, घोड़ियों को देखकर लोग इस अचम्भे में पड़ गये कि कहीं ये घोड़े तो नहीं क्योकि उनकी ऊंची कदकठी ने सबको अपने दांतो तले उंगलियां दबाने को मजबूर कर दिया। काफी देर बाद घोड़ी के मालिक ने हमें बताया कि यह घोड़ा नहीं है। वहां जी भर के घूमने के बाद हमने रुख किया मेले की ओर । वहां गये तो हमने पाया कि वो मेला आम मेला नहीं था क्योंकि आजकल मेले पूरी तैयारी के साथ होते है जिसमें हर चीज़ सेट होती है लेकिन इस मेले में पारम्परिक पुट था। यहां तरह तरह के कलाकृतियों की भरमार तो थी ही साथ ही हर मेले की ट्रेडमार्क बन चुकी चीज़ें जैसे मौत का कुआं का खेल हो या बड़े झूले हर तरह के मनोरंजन का इंतज़ाम भी था। काफी देर मेले मे घूमने के बाद हम सब बुरी तरह थक चुके थे अब हम गंगा नदी के तट पर पहुंचे । गंगा का विशाल तट पर पहुंचने के बाद हर कोई बस गंगा के निर्मल जल से ख़ुद को भिगोना चाह रहा था । थकावट ने सभी को बुरी तरह तोड़ दिया था पर जैसे ही हमने गंगा नदी के ठंडे पानी ने जैसे ही हमारे शरीर को छुआ ऐसा लगा मानो हम पिछले कई महीने से इसी शांती को पाना चाहते थे। नदी में उतरते ही हमारी सारी थकावट काफ़ूर हो गयी। अब हम ख़ुद को तरोताज़ा महसूस कर रहे थे । काफी देर गंगा मां के आगोश में आराम करने के बाद उनसे विदा लेकर हम वापस अपने अपने घरों की ओर चल पड़े । फिर नये जोश के साथ हम वापस मुड़े और रात के अंधेरों में अपने रास्ते पर चल पड़े , अब गांवों में लाइट जैसे मृगमारीचिका तो अंधेरे रास्तों में हम एक दूसरे के साथ वापस आ रहे थे । यहां पर मैने एक बुद्धिमानी दिखाई थी की अपने साथ एक टार्च लेकर गया था ताकि ऐसे समय उसका इस्तेमाल किया जा सके । लौटते हुए हम सभी अपनी गाड़ियों के पास पहुंच गये और अपने अपने एक्सपीरियन्स शेयर करने लगे । वापस आकर हम सारे यही बातें कर रहे थे कि इस तरह का मेला हमारे शहर में क्यों नहीं होता तब किसी ने ये कहा कि हमारे शहर में गंगा का सुहाना तट भी तो नहीं ।
मेरे बारे में
- शशांक शुक्ला
- नोएडा, उत्तर प्रदेश, India
- मन में कुछ बातें है जो रह रह कर हिलोरें मारती है ...
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गढ़मुक्तेशवर का यात्रा
रविवार, जनवरी 18, 2009प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 6:09 pm 0 टिप्पणियाँ
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