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सभी लोग रुचिका के हत्यारे का नाम राठौड़ राठौड़ कर रहे है। लेकिन यही लोग तब कहां थे जब रुचिका जिंदा थी और वो इस राठौड़ के द्वारा सताई जा रही थी। मीडिया में तमाम चैनल दिन भर बस इसी कोशिश में है कि रुचिका की आत्महत्या के दोषी को सजा मिले। अरे कानून ने सजा तो दे दी है । हां ये बात अलग है की ये सजा़ नाकाफी है। छ महीने की सज़ा और उस पर भी कारावास नहीं दस मिनट मे मिल गयी ज़मानत। लो कर लो बात, राक्षसी हंसी लिये राठौड़ अपनी पहुंच की ताकत दिखाता हुआ आम आदमी और मृत रुचिका पर हंसता हुआ बाहर आ गया। ये जो लोग आज राठौड़ के खिलाफ खड़े हुये हैं असल में वो राठौड़ के खिलाफ नहीं खडे हुए है बल्कि वो उस सज़ा के खिलाफ खड़े हुये है जो रुचिका को आत्महत्या के लिए मजबूर करने वाले राठौड़ को मिली है। लेकिन सवाल ये है कि उसे कितनी सजा मिलेगी। दस साल, चौदह साल या फिर फांसी । फांसी को तो लगभग हम भूल ही जाये क्योंकि जिनको फांसी मिली है वो भी आज सरकारी खजाने से मजे में है। तो फांसी तो एक तरह से मजेदार फैसला हो गया है। पहले लोग फांसी नाम से डरते थे, लेकिन आज फांसी के नाम से खुश हो जाते है कि सोचते है कि चलो अब तो जिंदा रहने का सर्टिफिकेट मिल गया है। और जिस पुलिस आफसर ने सारे पुलिस प्रशासन को अपनी जेब में रखकर रुचिका के परिवार की ऐसी तैसी कर डाली उसको जेल में कितना कष्ट होगा इसका अंदाज़ा आप लगा सकते है मेरा मतलब है कि वहा भी उसको घर जैसा ही लगेगा। जो लोग आज रुचिका को इसाफ दिलवाने के लिये सड़को पर उतरे है और मीडिया जोर शोर से मामले को उठा रहा है शायद रुचिका को इंसाफ मिल जाये । दोषी वो लोग है जिन्होने रुचिका के भाई को पुलिस स्टेशन में रखकर उसकी पिटाई की और रुचिका को ऐसा कदम उठाने को मजबूर कर दिया। इसमें वो लोग भी दोषी है जो राठौड़ पर केस चलने के बाद भी उसको पावर दिये जा रहे थे। उसका प्रमौशन किया जा रहा था। और रुचिका और उसके परिवार के लिये और ज्यादा मुसीबत खड़ी की जा रही थी। इन मामलो पर लगाम लगाने के लिये जिस पुलिस व्यवस्था को बनाया गया है अगर वो ही भक्षक बन जाये तो क्या होता है इसका पता रुचिका के मामले से चल रहा है