केंद्र सरकार भले ही नक्सल जैसे कोढ़ को खत्म करने के लिए दृढ़ संकल्प दिखे लेकिन एक सच्चाई ये भी है कि वो इस समस्य़ा स्थाई हल नहीं निकाल सकती है। हिंसा को रोकने के लिये न तो सरकार के पास कोई ठोस योजना है और न ही वो इसका हल चाहती है। नक्सल समस्या की सबसे बड़ी दिक्कत यही है कि इससे जुड़े लोग वो है जो सरकारी नीतियों और उनसे जुड़े लोगों से त्रस्त हो चुके हैं। गद्दियों पर बैठे लोगों के लिये नक्सल समस्य़ा ऐसी है जैसे किसी गेंहूं की बोरी में घुन लग गया हो। उन्हे पता है कि गेंहू में घुन लगेगा ही लेकिन वो इसका निराकरण नहीं करना चाहते है। वो सिर्फ यही सोच रहे है कि जब गेंहू पिसेगा तो घुन अपने आप लपेटे में आ जायेगा....
एक कारण ये भी है कि उनके लिये नक्सल समस्य़ा देश की समस्य़ा नहीं है ये सिर्फ उन इलाकों की समस्य़ा है जिनमें ये सिर उठाते हैं। इसका हल तभी निकलेगा जब ये नक्सली किसी नेता को खासकर कांग्रेसी नेता तो गोलियों से भून देंगे। आम लोगों की जिंदगी से न तो नक्सलियों को लेना देना और न ही राजशाही गद्दियों पर बैठी सरकारों की। नक्सल समस्य़ा के लिये सेना के इस्तेमाल न करने की दोगली नीतियों से तो यही लगता है कि नेता इसका हल चाहते ही नहीं है। सीआरपीएफ के जवान नक्सलियों के लिए बॉयलर मुर्गे है...वो इनको उन्ही की तरह काट रहे हैं। और कांग्रेसी नेताओं के मोटी हो चुकी खाल पर खरोच तक नहीं लगी है। ऐसे में उन्हे वो दर्द कहां से महसूस होगा तो सीआरपीएफ जवानों के परिवारो के दिलों में होता है। सेना चीख रही है कि इस समस्या के हल के लिये उन्हे तैनात किया जाये, लेकिन सफेद धारी कपड़ों में बैठे मंत्रियों को इसका हल नहीं सूझ रहा है। सीआरपीएफ की ट्रेनिंग कैसी भी रही हो लेकिन वो नक्सलियों के गोरिल्ला युद्ध का हल नहीं निकाल पायेंगे। क्यों कि सीआरपीएफ को वैसी ट्रेनिंग नहीं मिली है।
छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री को जब अपनी जान पर खतरा महसूस हुआ तो सेना के इस्तेमाल पर हामी भर दी,लेकिन अभी किसी कांग्रेसी की मौत बाकी है जिसके बाद इस समस्य़ा का भी हल हो जायेगा। देश में अब किस नेता की मौत होनी ये देखना अभी बाकी है। अब तो देश के ज्यादातर लोग मनाते है कि किसी आंतकवादी घटना में किसी नेता की ही मौत हो तभी इसका हल निकल पायेगा। इससे पहले तो किसी को खुद पर खतरा महसूस होगा नहीं। हम तब तक अपन हाथ पैर नहीं चलाते है जब तक हमे खुद पर खतरा महसूस न हो जाये। यहीं होगा जब कांग्रेसी नेता मारा जायेगा। मै किसी की मौत नहीं मांग रहा हूं। लेकिन जिस सोच के साथ नक्सल समस्या का हल निकाला जा रहा है वो समझ में नहीं आ रहा है। आखिर हमारे देश के नीति निर्धारक इस समस्य़ा का हल क्या सोच रहे हैं।
मेरे बारे में

- शशांक शुक्ला
- नोएडा, उत्तर प्रदेश, India
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कांग्रेसी की मौत से खत्म होगा नक्सलवाद.....
गुरुवार, जुलाई 08, 2010प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 6:05 pm 2 टिप्पणियाँ
लेबल: समाजिक
और फिर कहते है कि कानून के हाथ लंबे होते हैं.......
सोमवार, जून 07, 201023 साल की मुकदमेबाज़ी....हजारों लोगों की मौत और सज़ा सिर्फ दो साल.....अरे इससे ज्यादा साल तो मुकदमा चला है......आखिर क्यों.....क्या चूक रह गयी कि भोपाल की जिस यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री से रिसी गैस ने हजारों लोगों को लील लिया उनके आठ दोषियों को इतनी कम सज़ा मिली....आठ में से 7 दोषियों को दो-दो साल कैद और एक-एक लाख रुपये जुर्माना, और धारा 338 के तहत दो साल की कैद और एक-एक हजार रुपये जुर्माना, धारा 336 में तीन महीने कैद और 250 रुपये जुर्माना, धारा 337 में छह महीने कैद और 500 रुपये जुर्माने की सजा सुनाई......दुख की बात ये है कि ये सभी सजाए साथ- साथ चलेंगी......सवाल ये है कि जब सारी सजाए एक साथ ही चलेंगी तो फिर इनका औचित्य क्या है.....
फिर क्यों कहते है कि कानून के हाथ लंबे है.....क्यों कहते है कि इंसाफ देर से ही सही मिलता तो है.....दिल तो उस वक्त दुख गया जब दोषियों में से कुछ को तो तुरंत जमानत भी मिल गयी.....जेब में माल है तो कानून जेब में है.....फिल्मों में अक्सर ये डायलॉग सुना था....यहां तो कुछ ऐसा ही दिख रहा है....भोपाल गैस त्रासदी सिर्फ एक अकेला मामला नहीं है जिस पर आ रहे फैसले से लोगों को कानून से विश्वास उठ रहा है.....एक मामला चंडीगढ़ में भी चल रहा है जहां रुचिका को आत्महत्या के लिए मजबूर करने वाला राठौड़ कानून से हूतूतू खेल रहा है.... ऊपरी तौर पर इस मामले को कोई भी जाने तो मामले को हल्का ही सोचेगा.....आत्महत्या कर ली लड़की ने तो इसपर क्या मामला बनेगा.....कोर्ट ने सजा भी देदी....ये तो बस आंखमिचौली चल रही है ....डेढ़ साल की सज़ा भी वो नहीं काटना चाहता है...सज़ा काट लेगा तो क्या होगा....क्या वो उसका बदला नहीं लेगा...जब उस राठौड़ ने अपनी मनमानी न होने पर बदला लेने की ही नीयत से रुचिका के भाई को घर से उठवा कर पुलिस स्टेशन में फर्जी मामलों में पिटवाता रहा...तो क्या वो फिर बदला नहीं लेगा........सज़ा काफी नहीं है राठौड़ की...वो अगर सज़ा काट भी ले तो काफी नहीं......क्योंकि उसकी इस सज़ा से मानसिक तौर पर कमजोर हो चुके रुचिका के पिता को कुछ हासिल नहीं होगा....वो बेटी खो चुका है,.....बेटा इस हालत में नहीं कि कुछ कर सके.....एक पुलिस का पावरफुल अधिकारी किस हद तक किसी परिवार को तोड़ सकता है ये सामने आया है...और कोर्ट ने मामले पर सिर्फ डेढ़ साल की सज़ा दी.....सवाल है क्यों...
सज़ा सिर्फ आत्महत्या के लिए मजबूर करने की मिली है.....और किसको सिर्फ राठौड़ को....जिसके इशारे पर सब कुछ हो रहा था....ना,......असल गुनहगार राठौड़ नहीं है...गुनहगार तो वो पुलिसवाले है जो रुचिका के भाई को फर्जी मामलों में फंसा कर पीटते थे....इस कदर पीटते थे कि आज वो मानसिक और शारीरिक तौर पर कमज़ोर हो चुका है....और कानून को बड़ा बताने वाले हमारे कोर्ट इस मामले पर डेढ़ साल की सज़ा देते है....यहां मसला सिर्फ किसी जुर्म की सज़ा का नहीं है....जुर्म के पीछे छुपी उस भावना का है जिससे परेशान होकर एक परिवार टूट जाता है....एक लड़की अपने परिवार की हालत देखकर आत्महत्या कर लेती है.....और आला पुलिस अधिकारी राठौड़ सिर्फ डेढ़ साल की सज़ा पाता है.....उसके बावजूद उसकी पत्नी उसका केस लड़ती है.....कानून से कबड्डी का खेल चल रहा है कभी कानून राठौड़ की टांग पकडता है तो कभी राठौड़ अपने पाले में आ जाता है.....
और फिर कहते है कि कानून के हाथ लंबे होते है.....लंबे हाथ कितनी चपत लगाते है ये भी हम देख रहे है.....
प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 6:21 pm 2 टिप्पणियाँ
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