नक्सलवादियों को चाहिये क्या ?

मंगलवार, मई 18, 2010

नक्सलवाद हमारे देश को दीमक की तरह खा रहा है। ये वो दीमक है जो लकड़ी नहीं मासूमों का खून पीता है। दंतेवाड़ा की में बीते दिनों हुए विस्फोट में 50 से ज्यादा लोगों की मौत हो गयी। मरने वालों में बस में सवार यात्री थे। इन यात्रियों में पुलिसकर्मी और कुछ नागरिक थे। नक्सलियों का पुलिस या सुरक्षाबलों से दुश्मनी तो एक बार को समझ में आती है लेकिन आम नागरिकों से क्या दुश्मनी है। इस घटना से पहले सीआरपीएफ पर हमला बोला गया जिसमें 74 से ज्यादा जवानों को शहीद होना पड़ा। इसके पीछे गलती किसी की भी हो लेकिन मारने वालों में नक्सली ही शामिल थे।

आज के समय में नक्सलवाद सिर्फ एक तमगा है मनमानी करने या लूटपाट करने का। आज नक्सली अपने हक के लिये नहीं सिर्फ अपनी धाक के लिये लड़ रहे हैं। सरकार इसमें कुछ नहीं कर सकती है। क्योंकि जितने लोग नक्सलियों से परेशान है उनसे ज्यादा लोग नक्सलियों का सपोर्ट करने वाले है। उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि इस युद्ध में कितनी जानें गयी है। ये नहीं कहता कि सिर्फ सुरक्षाबलों की बल्कि उन नक्सलियों की जिनको बहकाया गया है। नक्सलियों  औऱ आतंकवादियों में ज्यादा फर्क नहीं है। दोनों को ही बहकाया गया है, दोनों हिंसा से अपनी बातें मनवाना चाहते है। दोनों के उसूल आम नागरिकों की लाशों से होकर गुजरता है।

परेशानी की बात ये है कि जो लोग इन हिंसक नक्सलियों का समर्थन करते है उनमें ज्यादातर बुद्धिजीवी वर्ग के हैं। इन छद्म बुद्धिजीवियों को कब अक्ल आयेगी कि नक्सलवाद का अर्थ आज बदल चुका है। जिस तरह अहिंसा का अर्थ बदल गया है। आज अहिंसा का मतलब हथियार गिराना या युद्ध न करना नहीं है। आज अहिंसा का अर्थ है हथियारों की संख्या में इतनी बढोत्तरी करना कि दूसरे तुम पर हमला न कर सकें। अपने हक लिये लड़ने वाले नक्सली आज सिर्फ कुछ लोगों की महत्वकांक्षाओं को पूरा करने वाले पुतले बन गये है। ये वो पुतले है जिनको दाना पानी मिल रहा है हिंसा का समर्थन करके, लूटपाट करके, लोगों को मारकर। मार्क्स के नाम पर नक्सल का सपोर्ट करना मूर्खता नहीं तो और क्या है। क्या हम आज के समय में गांधी के विचार पर चल सकते हैं कोशिश करके देखिये। गांधी के हिसाब से चलने के लिये भी हमें पहले हिंसक तरीकों को सोचना होगा। ताकि हिंसा की नौबत ही न आये। क्योंकि ताकतवर से सब डरते हैं और जिनसे हम डरते है उनसे हिंसा की बात सोच भी नहीं सकते। तो एक तरह से देखा जाये तो वो सबसे बड़ा अहिसावादी हो जाता है। औऱ हम भी।

मेरा सोचना पता नहीं दूसरों से अलग है या नहीं पर मैने इस तरह की बात पहले किसी के मुंह से सुनी नहीं। नक्सल पर कुछ लोगों के विचार अलग है वो समर्थन करते हैं। उन्हें नक्सलवादियों पर गोलियां चले तो दुख होता है। वो उनके हक की बातें करते हैं। वो उनके विकास की बातें करती है। पर क्या कोई ये बता सकता है कि बंदूक के दम पर विकास कहां होता है। सरकार भी तानाशाही करती है, नक्सलवादियों को इलाके में रहने वाले लोगों के साथ बहुत बुरा हुआ है। लेकिन इसका ये मतलब तो नहीं हिंसा पर उतारु नक्सलवादियों पर सरकार भी गोलियां चलवाये तो जेएनयू में छात्र छात्रायें उसको तानाशाही कहें। आज के समय में जब नक्सल की एक एक गोली का हिसाब भी मीडिया की खबरों में होता है। पूरे देश की नजरें उन पर टिकी होती है। उन लोगों पर टिकी होती है। ऐसे में विकास की पहल जब सरकार की ओर से होती है तो बंदूके क्यों गूंज रही है।

सरकार की बातचीत की पहल के बावजूद नक्सली क्यों नहीं आगे आने को तैयार है आखिर उन्हे क्या चाहिये। विकास चाहिये, नौकरी चाहिये,खाना चाहिये क्या चाहिये उन्हे। सब के लिये क्या उन्हे वो सब नहीं करना चाहिये जो देश का हर नौजवान कर रहा है। मेहनत, लगन से क्या कुछ हासिल नहीं किया जा सकता। बंदूक उठाकर सिर्फ छीना जा सकता है उसका लुत्फ नहीं उठाया जा सकता है। क्योंकि लुत्फ सिर्फ उसका उठाया जा सकता है जिसको मेहनत से कमाया हो। नहीं तो जो हालत हम दूसरों का अपनी बंदूकों से कर रहे है वैसा हाल हमारा भी किसी न किसी की बंदूकों से होगा। ये नक्सलियों को कभी नहीं भूलना चाहिये।

अंत में सिर्फ यही कहुंगा कि नक्सलवादियों को बंदूक छोड़कर विकास के रास्ते पर चलना चाहिये। सरकार में कमियां है हर कोई कहता है,लेकिन हर कोई बंदूक तो नहीं उठाने लगता है। हर कोई बंदूक उठा लेगा तो समझ जाना चाहिये कि अपनी गोलियां जब खत्म होंगी तब हमें कोई नहीं बचा पायेगा। सरकार का विरोध करना ही है तो गोलियों से नही अपने हक लड़ाई लड़नी चाहिये, लेकिन उसमें बंदूकों से बहता खून नहीं होना चाहिये।विकास के लिये पहल करने का सरकार को एक मौका देकर देखना चाहिये। क्योंकि देश जिस इलाके पर अपनी नजरें गड़ा कर बैठा हो...उसके साथ गद्दारी करने की हिम्मत किसी में नहीं है।

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