(नोट- सच्ची घटनाओं पर आधारित है, मेरे द्वारा देखी गई)
मेरे बारे में
- शशांक शुक्ला
- नोएडा, उत्तर प्रदेश, India
- मन में कुछ बातें है जो रह रह कर हिलोरें मारती है ...
कुछ और लिखाड़...
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अबकी बार खुले में शौच पर वार8 वर्ष पहले
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NewsGram: News media from Chicago9 वर्ष पहले
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दुश्मन भगवान (अंतिम भाग)14 वर्ष पहले
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हां मुझे राजनेताओं से डर लगता है....
मंगलवार, जून 30, 2009प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 3:12 pm 3 टिप्पणियाँ
लेबल: राजनीति
सुंदरता नहीं सुविधा चाहिए
सोमवार, जून 29, 2009प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 9:27 pm 1 टिप्पणियाँ
लेबल: राजनीति
कभी सोचा है कि रिमोट कहां से आया....
रविवार, जून 28, 2009प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 9:58 pm 1 टिप्पणियाँ
लेबल: मशीन
अरे सर....खुले नहीं है.. टॉफी ले लो
मंगलवार, जून 23, 2009हमारे एक ब्लागर साथी है आदर्श राठौड़। अपने ब्लाग प्याला पर लिखते है। उन्होंने अपने एक पोस्ट में उन्होंने बस वालों को दिन में एक -एक रुपये की चोरी करते हुए देख कर अपनी बात कही... मैने सोचा की क्यों न मै भी अपनी एक मज़ेदार वृत्तांत लिखुं जिसमें शायद पढने वाले को मज़ा आये। हुआ यूं कि जैसे हर कोई शाम के समय अक्सर घरों से घूमने निकल पड़ते उसी तरह मै भी अपनी शाम की चहल पहल के लिए निकल पड़ा। बाज़ारों से होकर गुजर रहा था कि मुझे याद आया कि मेरी दवाईयों का स्टाक खत्म होने की कगार पर पहुंच गया है। आपको बता दूं कि मै अपने पास दवाइयों की पूरी दुकान रखता हूं क्योंकि हो सकता है कभी भी उसकी जरुरत पड़ जाये। अक्सर मै ये दवाइयां लगभग एक ही दुकान से लेता हूं क्योंकि घर के पास हैं औऱ मिल भी आसानी से जाती है। लेकिन अक्सर वो मुझे दो या तीन रुपये के नाम पर टॉफियां दे देता था। मै भी टॉफी का अच्छा खासा शौकीन हूं इसीलिये मेरी दोस्ती शहर के कई डेंटिस्ट से है। और मै आपको बता दूं कि मुझे डिस्काउंट तक मिल जाता है। ऐसे ही एक दिन डॉक्टर ने कड़े अंदाज में कहा कि अगर आपने टॉफी खाना बंद नहीं किया तो सारे दांतों का अंतिम संस्कार करना पड़ेगा। मै मान गया। मैने अगले दिन दवाइयां लेने दुकान पर पहुंचा इस बार फिर हर बार कि तरह दुकान वाले ने मुझे टॉफी थमा दी मैने मन मारकर मना कर दिया। लेकिन उसने मुझसे कहा कि सर खुले नहीं है तो ले लीजिये। मैने उसके ट्रंक में सिक्के देख लिये थे। पर मैने कहा कि कोई बात नहीं बाद में दे देना पैसे। उसने मना कर दिया..कहने लगा कि टॉफी ही लीजिए। मैने कहा यार टॉफी मै अब नहीं खाता तो मुझे मेरे पांच रुपये दे दो। उसने टॉफी दे दी। मै वो लेकर आ गया घर आकर मैने सोचा कि दिन भर कि कमाई करने के बाद उसके पास इतने सिक्के भी नहीं थे लेकिन मैने फिर सोचा कि टॉफी के बहाने वो हर बार मुझे टॉफी लेने को मजबूर करता रहा या कहे कि मै अपने पैसे की टॉफी खरीद रहा था । और मै समझ रहा था कि उसके पास सिक्के नहीं होते इसलिए वो मुझे टॉफी देता था। इस बार मुझे उसकी चालाकी समझ में आ गई तो मैने उसकी चालाकी के लिए उसे सबक सिखाने की ठानी। मैने उसके दुकान हर बार की तरह दवाइयां लेता और वो मुझे टॉफी देता और मै सभी टॉफियों को इकट्ठा करना शुरु कर दिया तो एक दिन जब मै उसके दुकान पर गया तो उसने मुझसे दवाई के बदले पैसे मांगे चूंकी मेरी दवाई की कीमत 65 रुपये है मैने उसे 40 रुपये थमाए अब उसे इंतजार था कि मै बाकी पैसे दूंगा मैन अपने बैग से खूब सारी टॉफियां निकाली और लगभग पच्चीस रुपये की टॉफियां उसके टेबल पर पटक मारी। उसने मुझसे कहा कि भाई साहब बाकी पैसे.... मैने कहा कि दे तो दिये। ये लो बाकी पैसे की टॉफियां। उसने कहा कि क्यों मज़ाक कर रहे हो सर। क्योंकि मै एक पत्रकार हूं तो ज्यादा तेज आवाज़ या बद्तमीज़ी से बोल नहीं सकता था। इसलिए उसने मुझे घूरकर देखा..मैने उससे कहा कि क्यों ..जब आप पैसे के बदले टॉफी दे सकते हो तो मै भी पैसे के बदले टॉफियां दे रहा हूं तो क्या गलत है। रखों और खूब खाओ....या औरों को दे देना....इतना कहकर मै वापस आने लगा और वो मेरे मुंह को देखता रह गया। वहां ज्यादातर लोग मेरी इस हरकत को गौर से देख रहे थे कुछ मज़ा ले रहे कुछ हंस रहे थे। शायद दुकानवाले की समझ में कुछ तो आया होगा।
प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 4:20 am 1 टिप्पणियाँ
लेबल: हास्य व्यंग
कोई जीते ना जीते.. पाकिस्तान नहीं जीतना चाहिए !
रविवार, जून 21, 2009प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 9:24 am 2 टिप्पणियाँ
लेबल: सामाजिक
कोई भारतीय नहीं..सब प्रादेशिक हैं ?
शनिवार, जून 20, 2009फिर उठ रहा है गर्मा गरम मुद्दा उत्तर भारतीय और मराठी का...शिवसेना का शिव बड़ापाव हो या कांग्रेस का पोहा..सब किसी न किसी को कुछ न कुछ खिलाने की कोशिश कर रहे हैं। राजनीति का गंदे खेल को छोड़ दें तो मुद्दा कुछ खिलाने का नहीं हैं ..यहां मुद्दा मराठी मानुष को काम देने का है। लेकिन इस पर भी राजनीति शुरु हो गई हैं। मराठी और उत्तर भारतीयों के मुद्दे पर बहस तो बहुत हुई लेकिन सार कभी कुछ नहीं निकला। मै आज फिर इस मुद्दे पर एक नई बहस को जन्म दे रहा हूं कि आखिर मराठी मानुष को उत्तर भारतीयों से इतनी चिढ़ क्यों है। और वो कौन से मुद्दे हैं जिन पर बहुत सी नई पार्टियां शुरु हुई हैं। चाहे वो सालों से मराठी मानुष को आगे लाने के लिए बनी शिवसेना हो या महाराष्ट्र नव निर्माण सेना। क्यों मराठी लोगों को ऐसा लगता है कि उत्तर भारतीय उनके काम को छीनते हैं। यहां पर एक बात तो माननी होगी कि यूं तो मेरे साथ कई मराठी लोग काम करते हैं मेरे आस पास रहते हैं उनको इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि महाराष्ट्र में उत्तर भारतीय काम करें या न करें। ये बात तो निर्भर करती है कि काम पर रखने वाले किन लोगों को रखते हैं और किसको नहीं। मै एक साफ सुथरी बहस चाहता हूं इस मुद्दे पर कि मराठी लोगों को अपनी असुरक्षा का भाव कहां औऱ क्यों आता है। सिर्फ महाराष्ट्र में भी बहुत से उत्तर भारतीय काम करते हैं औऱ कई लोग तो ऐसे हो जिनके पूर्वज शायद उत्तर भारतीय थे लेकिन वो नहीं है क्यों उनका जन्म वहीं के किसी अस्पताल में हुआ है। मेरे घर के ऊपर वाले मकान में एक महाराष्ट्रियन परिवार रहता था जब तक वो रहे हमारे उनके अच्छे संबध रहे पर जब मनसे के कार्यकर्ताओं का कहर उत्तर भारतीयों पर शुरु हुआ तो मैने उनसे इस मुद्दे पर व्यापक बातचीत की असल में मै वहां के आम आदमी की सोच को जानना चाहता था। उन्होंने जो मुझे बताया उसके मुताबिक महाराष्ट्र में लोगों को ये फर्क नहीं पड़ता कि कौन उत्तर भारतीय है कौन नहीं ...पर दिक्कत तब आती है जब वहां पर काम देने वाली फर्म उत्तर भारतीयों को सस्ते लेबर की वजह काम देना ज्यादा पसंद करता हैं क्योंकि इसमें उन्हे मुनाफ़ा ज्यादा मिलता है... और लागत कम लगती है। इसी वजह से वहां के मराठी लोगों में इस बात से आक्रोश बढ़ गया। उन्हें लगा कि बाहर से लोग आ रहे हैं उन्हें काम मिल रहा है पर उन्हें नहीं। यहां समझने वाली बात ये है कि इस तरह की रणनीति हर फर्म करती है चाहे वो महाराष्ट्र हो या दिल्ली..यहां भी अगर कोई फर्म अपना कारखाना लगाती है तो कोशिश करती है कि लोकल लोगों को कम से कम काम पर रखा जाये इसका कारण होता कि लोकल होने की वजह से उनकी धाक जमी रहती है और इस वजह से अपर हैंड का काम करता लोकल होना। यहीं कारण है कि वो बाहर से आये हुए कर्मचारियों को ज्यादा अग्रणी रखती है। इसमें उनका सस्ता लेबर भी एक प्लस प्वाइंट की तरह काम करता है। एक मानसिकता इस पूरे बबाल के पीछे है वो ये कि अगर हमारे प्रदेश में कोई फैक्ट्री लगती है तो ज्यादा से ज्यादा लोग ये सोचते हैं कि अब यहां के लोगों को काम मिलेगा ...उस वक्त इस ख्याल पर बात नहीं होती कि बहुत से लोगों को काम मिलेगा। इसी वजह से जो लोग बाहर से आते उन लोगों को वहां के स्थानीय लोगों के आक्रोश से रुबरु होना पड़ता है। यही बात महाराष्ट्र पर लागू होती है इसी वजह से वहां के लोगों को उत्तर भारतीयों से चिढ़ होती है। या ये कहें कि उन्हें हर उस व्यक्ति से परेशानी होती है जो महाराष्ट्र से बाहर के होते हैं। अपने पड़ोस में रहने वालों से मैने ये भी पूछा कि तो फिर सिर्फ उत्तर भारतीयों को क्यों निशाना बनाया जा रहा है। तो उन्होंने कहा कि उत्तर भारतीयों को नहीं ग़ैर मराठी को निशान बनाया जा रहा है। क्योंकि महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों की संख्या ज्यादा है इसलिए ज्यादा से ज्यादा निशाना उत्तर भारतीय बन रहे हैं। जबकि सच ये है कि वहां पर रह रहे सभी ग़ैर मराठी लोग निशाना बन रहे हैं आक्रोशित लोगों का शिकार बन रहे हैं।
प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 2:11 pm 1 टिप्पणियाँ
लेबल: देश की चिंता
क्या है धार्मिक उन्माद....कौन है कट्टर..
गुरुवार, जून 18, 2009मुझसे किसी न सवाल किया कि धार्मिक उन्माद क्या है..असल में उन्होने सवाल किया कि उनके कौन से लेख से मुझे लगा कि उन्होने धार्मिक उन्माद फैलाने कि कोशिश की है...
यहां तक की मुझे तो किसी ने आऱ एस एस का कार्यकर्ता ही घोषित कर दिया...लेकिन मै पूछना चाहता हूं कि अगर कोई अपने ब्लाग पर सिर्फ धर्म से जुड़े मुद्दों के बारे में लिखे तो उसे आप क्या कहेंगे...कुछ लोग उसे कहेंग कि वो धार्मिक कट्टर है पर मै इस बात को नकार देता हूं उस वक्त मेरी नज़र में वो ठीक है और बिलकुल एक आम आदमी की तरह आपने धर्म से जुड़ी बातें करता है और कुछ नहीं....लेकिन दिक्कत उस वक्त शुरु हो जाती है जब वो शख्स ये कहने लगे कि मेरे धर्म में जो लिखा है उसके हिसाब से अगर कोई रहने लगे तो समाज सुधर जाएगा..और वही आदमी दूसरे धर्मों के विषय में गलत बातें लिखने लगे और कहे कि ये सच है तो....उस वक्त मेरे विचार से ये गलत होगा....क्यों आपके धर्म में जो बातें लिखी है वो ठीक होंगी सच होंगी इसका मतलब ये तो नहीं कि जो बातें आपके धर्मिक पुस्तकों में लिखीं हो वो ही सही हैं और दूसरों की पुस्तकों में जो लिखा है वो गलत...बेशक आप व्याख्यानों के महारथी हों...किसी पेड़ को देखकर कल्पवृक्ष की संज्ञा तक देकर उसका व्याख्यान करें लेकिन इस वक्त आप धार्मिक उन्मादी की श्रेणी में आ जायेंगे..क्यों कि उस वक्त आप तो अपने धर्म की अच्छी बातों को नहीं कह रहे होते है दूसरे के धर्म को गलत ठहराने में व्यस्त होते हैं...आप जो लिखें ठीक लिखें अपने से मतलब रखें किसी और को गलत न कहें खासकर धर्म से जुड़े मसायल पर क्योंकि धर्म कुछ नहीं होता...होता है जीवन जीने के तरीका या ढंग जिसका निर्माण हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए किया ताकि हम इस जीवन को सलीके से जिंए न की दूसरे को गलत ठहराकर खुद को ज्यादा अच्छा दिखायें....ये बात सभी धर्मों पर लागू होती है.... इन बातों को किसी भी धर्म के अनुयायी अपना सकते हैं...धर्म धर्म करते रहते हैं कभी ये भी कहा है कि क्यों भाई साहब कहीं मेरे इस काम आपकों कोई परेशानी तो नहीं हो रही है...ये बात ठीक है कि किसी के कहने पर आप कुछ बदल नहीं सकते औऱ बदलना भी नहीं चाहिए पर समझना तो चाहिए....मेरे इस लेख हो सकता है कि आपके समझ में आया हो जिसको समझाने के लिए मैने इतना समय दिया इस लेख को बात को समझे...धर्म कुछ नहीं मात्र एक जीवनशैली है
प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 7:10 pm 2 टिप्पणियाँ
लेबल: धर्म
कैसे दूर होगा रैगिंग का कैंसर
बुधवार, जून 17, 2009रैगिंग का सांप जिस तरह से हर साल कई छात्रों को हर साल निगलता जाता है उसे देखकर लगता कि कब इससे निजात मिल पायेगी। हर साल कई बच्चे इसकी वजह से आत्महत्या करने जैसा बड़ा कदम उठा लेते हैं। रैगिंग को रोकने के लिए देश की सबसे बड़ी ताकत सुप्रीम कोर्ट ने भी कई तरह के कड़े कानून बनाये है लेकिन हर बार ये कानून फ़ेल होते किसी काम नहीं आते है। इसका उदाहरण दूंगा उस वक्त का जिसको मैने देखा है झेला है.....जब मै अपने कॉलेज में पढ़ा करता था तो उस वक्त भी रैगिंग के मामले सामने आते थे। मै जब पहली बार कालेज में कदम रखा तो उस वक्त भी मेरी रैगिंग हुई थी। मै और मेरा दोस्त कॉलेज के गेट पर पहुंच भी नहीं पाये थे कि हमें आवाज आई कि ऐ फ्रेशर इधर आओ। हम दोनों का अंदाजा तो हो गया कि अब तो गये बेटा...हम दोनों वहां पहुंचे वहां पहुचते ही सबसे पहले उन्होने हमसे हमारा नाम पूछा उसके बाद कहा कि नाच कर दिखाओ बीच सड़क पर हमें नाचना पड़ा क्या करते अंजान शहर अंजान लोग इसलिए हमने नाचकर दिखाया लेकिन बात आगे बढ़ती कि कॉलेज की ही रैगिंग टीम आ गई और हमारे जान में जान आई। लेकिन सिलसिला यहीं ख़त्म नहीं हुआ था... ये तो सिर्फ शुरुआत थी। अब तो जो कोई सीनियर मिलता वो कुछ न कुछ करने को कहता कोई नचाता तो कोई गाने गवाता लेकिन खतरा तो तब और बढ़ जाता जब हर कॉलेज की तरह यहां भी गुंडे टाइप के लोग आ जाते हैं और उनसे हर कोई डरता है चाहे टीचर हो या मैनेजमेंट क्योंकि इनमें ज्यादातर उन लोगों बच्चे होते है जो या तो मंत्री के लड़के होते है किसी आईएएस के.... उस वक्त आप तो समझो गये। मेरे साथ भी ऐसा हुआ। एक बात और कि इस टाइप के बदमाश लड़के सूनसान जगहों पर ही आपको जाने को कहेंगे क्यों कि वहां न मानने पर मारने पीटने की आज़ादी जो होती है। मुझे भी सूनसान जगह देखकर ले जाया गया सबसे पहले मुझसे मेरा नाम पूछा गया और रहने का स्थान...रहने का स्थान इसलिए पूछा जाता है क्यों कि इसी बहाने पता तो लगे कि कहां रहता है या रहती है। मैने बता दिया कि मुज़फ्फरनगर.... शहर की नाम सुनकर एक बार तो लड़के कुछ सोच में पड़ गये शायद इस वजह से कि मेरे शहर का इतिहास ज़रा सा खराब है...लेकिन आगे कोई मांग बढ़ती कि तभी उनमें से एक लड़के ने आवाज लगाई कि ओए...लड़की.......देख लड़की आ रही है.....एक लड़की पर उनकी नज़र पड़ गयी जो बचते बचाते वहां से निकल रही थी। पता नहीं मेरी किस्मत अच्छी थी या उसकी किस्मत खराब कि उन बदमाश लड़कों ने मुझे तो छोड़ दिया पर उस लड़की को पकड़ने चले गये। मैं तो अपनी जान छुड़ाकर भागा लेकिन थोड़ी दूर जाकर ख्याल आया कि क्यों न जाकर देखू कि कहीं उस लड़की वो बदमाश लड़के ज्यादा परेशान तो नहीं कर रहे हैं। मैने तुरंत खुद न जाकर कॉलेज के लोगों को सूचित किया। तब वो लोग उसे बचाने या कहें कि उसे छुड़ाने वहां गये। जब वो वापस आई तो उसके आंखों में आँसूं थे।...उसके आंसू से आप सहज ही अंदाजा ही लगा सकते हैं कि उस बेचारी के साथ क्या हुआ होगा....उस घटना के बाद कॉलेज मे बबाल हुआ लेकिन मैनेजमेंट लाचार था लेकिन हिम्मत की दात देता हूं उस लड़की की कि उसने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई लेकिन जैसा मैनेजमेंट ने किया था कुछ न करके..... उसी तरह पुलिस ने भी कुछ न किया क्यों उनमें से सभी उच्च अधिकारियों के लड़के थे और इसी वजह से मामला दबता चला गया उस दिन के बाद से उस लड़की को रोज देखता था क्यों कि मुझे लगा कि आखिर कैसे ये लड़की इतना सहने के बाद भी कॉलेज में आ रही है और उन बदमाशों को भी देखता था क्योंकि वो हमेशा की तरह किसी न किसी लड़की को रोककर रैगिंग के नाम अभद्रता कर रहे होते थे और कॉलेज मामले को शांत करता नजर आता था और ऐसा चलता रहा अगले तीन साल तक जब तक मै उस कॉलेज में पढ़ा।
प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 7:24 pm 3 टिप्पणियाँ
लेबल: सामाजिक
हां ये नस्लीय की हिंसा है!...भारतीय सावधान
मंगलवार, जून 16, 2009ऑस्ट्रेलिया.... इस देश का नाम आते सबसे पहले हमारे दिमाग में जो तस्वीर उभर कर आती है वो है वहां की क्रिकेट टीम...बेहतरीन खेल से वहां के खिलाड़ियों ने क्रिकेट की दुनिया में अपना खौफ़ कायम कर रखा था। लेकिन आजकल इस देश की चर्चा वहां के खिलाड़ियों के बेहतरीन खेल की वजह से नहीं बल्कि वहां पर हो रही हिंसा की वजह से हो रही है। ये हिंसा एक आम हिंसा नहीं है और न तो हो सकती है। इस हिंसा का शिकार हो रहे सिर्फ भारतीय। कभी तो वो छात्र होते हैं तो कभी वहां पर काम करने वाले आम भारतीय....पिछले कुछ महीनो पर नज़र डालें तो हम पायेंगे कि किस तरह से वहां पर हिंसा का दौर रुक नहीं रहा है औऱ जिसका शिकार भारतीय छात्र हो रहे हैं। इन हमलों में वहां की सरकार तो इस आम लूट पाट के लिए होने वाला हमला बता रही है पर असल में ऐसा है नहीं। वहां पर पिछले चालीस सालों से ज्यादा समय से भारतीय रह रहे हैं और वहां हमेशा से ही भारतीयों को अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता था। न सिर्फ भारतीय बल्कि वो देश जो विकासशील थे या ये कहें कि ऑस्ट्रेलिया के मुकाबले कम अमीर थे। उस वक्त यहां के लोगों में भारतीयों या यहां के लोगों प्रति कोई गलत भावना नहीं थी क्यों जिस तरह कम पैसे वाले या बेहाल को देखकर हम उनपर दया दिखाते हैं लेकिन जब वो हमसे आगे निकलने लगते है उस वक्त हमें जलन होती है उसी तरह जबा ऑस्ट्रेलिया में भारतीयों का वर्चस्व बढ़ने लगा या कहें कि भारतीय पैसों के मुकाबले और अमीर होने लगे तो वहां के निवासियों को ये गवांरा नहीं हो रही है। यहीं कारण है कि वहां रह रहे 7 हज़ार टैक्सी चालकों में से साढ़े पांच हज़ार सिर्फ भारतीय ड्राइवर हैं और उन पर हमले के मामले कम होते हैं लेकिन पढ़े लिखे सभ्य़ और आर्थिक रुप से मजबूत भारतीयों या छात्रों पर लगातार हमलें हो रहे हैं। ऑस्ट्रेलिया के बारे आप वहां के खिलाड़ियों के बर्ताव से पता लगा सकते है कि कभी भी इंग्लैड और साउथ अफ्रीका या बड़े देशों के खिलाड़ियों से उनकी झड़पें कम होती थी लेकिन भारतीय, श्रीलंका, पाकिस्तान जैसे देशों से उनका बर्ताव मैदान पर भी दिख जाता है...भारतीय खिलाड़ियों से उनकी झड़पें तो कई बार सुर्खियां भी बटोर चुकी हैं। वहीं बांग्लादेश जैसे देशों से उनकी झड़पों की ख़बर नहीं आती है..क्यों? ...इसकी जवाब है कि ये देश उनकी वर्चस्व को चुनौती देती नहीं दिखती हैं। भारतीय खिलाड़ियों से उनके दुश्मनी का कारण यही है कि क्यों कि भारतीय उनके वर्चस्व को चुनौती देते थे। इसका सबसे चर्चित उदाहरण है आई पी एल में जब कोलकाता नाइट राइडर्स के खिलाड़ी अजीत अगरकर को की गई नस्लीय टिप्पणी जिसमें ऑस्ट्रेलियन कोच ने किस तरह उनसे कहा था कि ....तुम भारतीय वहीं करो जैसा कहा जाये... इस बात से सहज़ ही अंदाजा लग जाता है कि किस तरह गुलाम रखने की मानसिकता के साथ के पले ऑस्ट्रेलिया के लोग भारतीयों को अपने से नीचे समझते हैं और जब उनको इसकी चुनौती मिलती है तो इस तरह कि नस्लीय हिंसा समाने आती है। और ये हिंसा कई सालों से आ रही जब से भारत आर्थिक रुप से प्रगति कर रहा है। और एक बात औऱ कि ये हालात सिर्फ ऑस्ट्रेलिया में नहीं है सभी जगह शुरु होने वाले हैं क्यों कि सभी जगह आर्थिक मंदी है और भारतीयों के इसकी फिक्र नहीं हो क्यों भारत में इसका ज्यादा असर देखने में नहीं आया है। इसलिये इसका समाधान कुछ नहीं है कोई भी सरकार इसका हल नहीं निकाल सकती है। क्यों कि इस सोच का हल नहीं है। हां एक चीज है जो हो सकती है और वो ये कि सभी भारतीय एकजुट होकर रहें औऱ सभी घटनाओं का मुंहतोड़ जवाब दें.....
प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 7:06 pm 1 टिप्पणियाँ
लेबल: जागो रे
ये कैसा बदनाम प्यार ?
प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 1:05 am 0 टिप्पणियाँ
लेबल: मुद्दा