हां मुझे राजनेताओं से डर लगता है....

मंगलवार, जून 30, 2009

(नोट- सच्ची घटनाओं पर आधारित है, मेरे द्वारा देखी गई)

ये भी एक ऐसा सच है जिसे सुनकर हो सकता है कि कुछ लोगों को हंसी आ जाये लेकिन क्या करें डर लगता है तो लगता है। मै एक बार लखनऊ से आते वक्त रेलवे स्टेशन पर अपनी ट्रेन के इंतजार में खड़ा था। कुछ ही देर में मैने देखा कि मेरे आसपास खड़े लोग किसी चीज़ को बड़ी ही तल्लीनता से देख रहे है। अक्सर हम लोगों से हो जाता जैसे बूढ़ा आदमी मंदिर आने पर सर झुका लेता है औऱ जैसे 22-23 साल के लड़के किसी सुंदरी को देखकर उसको बड़ी ही तल्लीनता से देखते है उसी तरह मेरे आसपास खड़े लोग एक दिशा की ओर देख रहे थे मैने भी उत्सुकतावश उस ओर देखा..मैने देखा कि कुछ पुलिसवाले हाथों बंदूक लिये खड़े थे...संख्या की बात करुं तो लगभग पांच से सात लोग होंगे। मैने देखा कि उनके पास एक आदमी और खड़ा था लेकिन वो वर्दी में नहीं था। सर पर अंगोछा बांधे, पैरों में सैंडिल, धारियों वाली शर्ट और काली रंग की पैंट। धारियां वो नहीं जैसा कि हिंदी फिल्मों में ट्रेंड है दिखाने का। बड़ा ही साधारण सा आदमी था वो लंबी सी मूंछ,भरा चेहरा गुटखा खा रहा था शायद, साथ में पुलिसवालों से हंसीमज़ाक भी कर रहा था। पुलिस वाले भी उसकी बातों पर हंस रहे थे। लेकिन एक बात जो साधारण नहीं थी वो थी उसके हाथों में पड़ी वो हथकड़ी जिसकी मोटी सी रस्सी एक मोटे से पुलिस वाले के हांथों में भी बंधी थी। एक मजेदार बात बताता हूं कि अक्सर आपने भी इस तरह की घटना देखी होगी कि बदमाशों के हाथों की हथकड़ी की रस्सी हमेशा मोटे से पुलिसवाले के हाथों में बांधी जाती है ताकि बदमाश भागे भी तो भी न भाग सके क्यों कि भारी आदमी को कहां तक घसीटेगा ...शायद.....मैने भी उसके हथकड़ी पहने सख्त से चेहरे को देखकर थोड़ा डर महसूस किया। क्यों बदमाशों से पाला ज़रा कम ही पड़ा है उस वक्त मेरी उम्र 19 के आसपास रही होगी और मीडिया जगत में मेरी इंट्री नहीं हुई थी। डर के मारे एक बार देखने के बाद मै दोबारा उन लोगों को एक टक देखा भी नहीं....हां डर की वजह से तिरछी नज़र से देख रहा था। उसी तरह जिस तरह अगर कोई स्मार्ट सा लड़का किसी लड़की को प्रेम पत्र थमा दे औऱ लड़की मना भी कर दे तो भी हर रोज वो लड़की तिरछी नज़रों से उसे देखेगी ज़रुर चाहे नाक भौं सिकोड़ ही क्यों न रही हो। उसी तरह मुझे भी बदमाश देखने की लालसा तो थी इसीलिए मै तिरछी नज़र से देख रहा था। अब डर भी लग रहा था...लेकिन डर पर काबू पाया औऱ प्रेमचंद का फैन हूं इसलिए उनकी किताब पढ़ने लगा गोदान....अभी पंद्रह से बीस मिनट हुए होंगे कि मैने फिर देखा कि लोग उसी तरफ देख रहे थे जिस तरफ पहले देख रहे थे। मुझे लगा कि फिर कोई बदमाश होगा या उसी को देख रहे होंगा जिसको पहले देख रहे थे। लेकिन जब वे लोग लगभग पांच दस मिनट तक देखते रहे तो मैने भी देख ही लिया। मै देखता हूं कि लगभग 15 से 20 पुलिसवाले, चार से पांच काले वस्त्रधारी जांबाज़, खड़े थे सबके हाथों में बंदूखे सब बड़े सख्त चेहरे से सभी की ओर घूरकर देख रहे थे। मैने भी जिज्ञासावश देखने लगा मुझे लगा कि यार लगता है कि कोई बड़ा गैंगस्टर है..... लगताहै कि कहीं पेशी होगी...फिर सोचने लगा कि यार इतने ख़तरनाक अपराधी को ट्रेनों से सफर क्यों करवाते हैं....... यार कितना रिस्क रहता है। लेकिन देखते ही देखते मेरे विचारों ने मुझे मूर्ख बना दिया। सफेद कुर्ता, सफेद पैजामा, सफेद जूते टफ्स कम्पनी के......मूंछे लंबीं काली, ...बाल काले, दोनो हाथों की आठ अंगुलियों में सोने की अंगूठियां, अब सिर्फ हीरे की पहचान है मुझे .....नगों की जानकारी कम है लेकिन वो यहां देना ग़ैरज़रुरी है, दांये हाथ में एक ब्रेसलेट सोने का , बांये हाथ में एक रिस्ट वॉच सोने की लग रही थी पर हो सकता है कि धोखा हो क्योंकि वो बार-बार कुर्तें की बांहो से ढंक जा रहा था सो मै ठीक से देख नहीं पाया.... दांये हाथ में मोबाइल संभवत: वो विंडो मोबाइल रहा होगा क्योंकि काफी चौड़ा था, सेहत में मोटा, कद ज्यादा छोटा तो नहीं पर मुझसे थोड़ा छोटा था, खड़ा था ....न तो किसी से बोलता और न हीं हंसी मज़ाक,...... हां आसपास खड़े पुलिसवाले औऱ काले वस्त्रधारी वीर जिन्हे ब्लैक कैट कमांडो कहते हैं, वो लोगों को धक्का देकर उनसे दूर रहने की हिदायत ज़रूर दे रहे थे।मुझे लगा कि चलों अच्छा है लोगों को बदमाशों से दूर रहना चाहिए। सफेदपोश महाशय कभी फोन पर बात करते तो कभी साथ में खड़े सहयोगी संभवत वो उनका पीए होगा क्योंकि रह रह कर वो उस चिल्ला भी देते थे। मैं उन्हे बड़ा अपराधी समझ बैठा था कि तभी एक भीड़ आ गई और वो नेता जी( नाम नहीं लूंगा यार कुछ तो संस्पेंस रहने दो, मुझे राजनेताओं से डर लगता है यार) के नाम के नारे लगा रही थी हाथों में बैनर लिये। .ये खेल चल ही रहा थी कि मेरी दिल्ली की ट्रेन आ गई और मेरे साथ वो दोनों लोग लाव लश्कर के साथ बैठ गये ये अलग बात है नेता जी और चमचे एसी क्लास में, मै स्लीपर में औऱ वो बदमाश जनरल कोच में। सीट पर बैठकर मै विचारों पर नये सिरे से विचार करने लगा .....कि देखों यार मै दोनों को बदमाश समझने लगा था जबकि एक तो उसमें से नेता जी थे। अभी मानसिक द्वंद चल ही रहा था कि अचानक मेरा दिमाग ठनका......फिर ख्याल आया कि यार ये नेता जी तो कई बार घोटालों, औऱ हत्याओं, साथ ही ग़ैरकानूनी रुप से हथियार रखने में नाम आता रहा है...ये अलग बात है कि साबित न हुआ हो...इनका चेहरा टीवी पर देखा था ये तो महाशय बाहुबली नेता है। तब समझ में आने लगा कि क्यों पुलिसवाले दोनो के साथ खड़े थे एक की रक्षा के लिए और एक से रक्षा के लिए। लेकिन दोनों की फितरत एक ही थी। यहां तक की काम भी एक जैसा करते थे । इसलिए इनसे तो लोगों की रक्षा करनी चाहिए। इसलिए मै कहता हूं कि यार मुझे इन राजनेताओं से बहुत डर लगता है क्योंकि पुलिस भी इनकी रक्षा करती है अगर कहीं इनसे बात बिगड़ गई तो फिर मेरी मदद कौन करेगा। जनरल कोच वाले से कर लेगा लेकिन एसी क्लासवाले से कैसे करेगा क्यों कि भाईसाहब एसी का टिकट मंहगा आता है औऱ जनरल औऱ स्लीपर का कम रुपयों में।

सुंदरता नहीं सुविधा चाहिए

सोमवार, जून 29, 2009

जी हां क्या चाहते है आप सुंदरता या सुविधा....ये सवाल कई बार मेरे दिमाग में कौंधता है जब जब उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती जनता के पैसे को बेकार यूं ही मूर्तियों और हाथियों पर खर्च करती हैं। और तो और अपनी इस हरकत को भी बड़े गुणगान की तरह बताती भी हैं। उनका कहना ये है कि हाथी अच्छे काम के लिए दरवाजो़ पर लगाया जाता है। किस हद तक गिर गये है ये लोग की जनता के जिस पैसे का इस्तेमाल पानी, बिजली औऱ अन्य सुविधाओं में करना चाहिए था उसका इस्तेमाल वो अपनी बेवकूफियों पर खर्च कर रही है। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि लगभग दो हज़ार करोड़ रुपये को वो इन मूर्तियों पर खर्च कर चुकी हैं। जनता को बेवकूफ साबित करके वो क्या दिखाना चाहती हैं ये तो कोई नहीं जानता। सुरक्षा व्यवस्था अच्छी करने का खर्च वो अपनी लालसा को पूरी करने में खर्च कर रही हैं। और वो खुद को महान करवाने के लिए तिकड़मबाजी भी शुरु कर चुकी है। क्योंकि खुद की भी मूर्तियां भी धड़ल्ले से बनवा रही हैं। और तर्क ये हैं कि काँशीराम जी की इच्छा थी। अबे राजनीति के रक्त पिपासूओं जनता को ये सब नहीं जमता। इसी वजह से लोकसभा चुनावों में मुंह की खानी पड़ी और आसार नहीं है कि विधानसभा में भी जीत पाओगे। सुप्रीम कोर्ट में इस मूर्तिबाज़ी के खिलाफ याचिका दायर की गई है लेकिन जो पैसा खर्च हो चुका उसका हिसाब कैसे देगी ये मुद्रा की राक्षस। मै लखनऊ गया था मैने देखा शहर को सुंदर बना दिया गय़ा है लेकिन हर जगह किसने सुंदर बनाया है इसका सबूत मायावती या कांशीराम की मुर्तियां बता रही है। यही नहीं आने वाली तीन जुलाई को चालीस प्रतिमाओं को अनावरण करने वाली हैं। खास बात तो ये है कि इनमें से छह मूर्तियां तो सिर्फ उसकी है। मायावती और कांशीराम की प्रतिमाओं पर लगभद सात करोड़ रुपये खर्च कर दिये है। आखिर इन पैसों की क्या ये इस्तेमाल सही जगह किया गया। अगर इन्हीं पैसों का इस्तेमाल बिजली, पानी और विकास कार्यों पर लगाया होता तो शायद प्रदेश आगे बढ़ता और यही काम हमारे देश के नेता करें तो भी देश आगे बढेगा लेकिन आजकल राजनीति इसलिए नहीं कि जाती कि लोगों की मदद करें बल्कि इसिलिए की जाती है कि चुनावों में लगाई गयी रकम को जल्द से जल्द लपेटा जाये फिर मिलने वाले पैसों को बैंकों के गुप्त खातों मे जमा करवाया जाए। चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी

कभी सोचा है कि रिमोट कहां से आया....

रविवार, जून 28, 2009


घर में रखे बुद्धू बक्से पर भले ही 200 से ज्यादा चैनलों की बाढ़ हो और आप इसे एक से एक मनपसंद कार्यक्रम देखने की चाहत रखते हों, लेकिन सोचिये आपके पास रिमोट न होने से आपका सारा मज़ा किस तरह किरकिरा हो जाता है।इस बात से कम ही लोग वाकिफ होंगे कि जहां टेलीविजन 1930 के दशक में पहुंचा था, वहीं रिमोट कंट्रोल को अस्तित्व में आए 111 साल का एक लंबा समय बीत चुका है। सिर्फ टीवी, स्टीरियो सिस्टम या डीवीडी प्लेयर्स ही नहीं अब तो कंप्यूटर भी रिमोट कंट्रोल से चलने लगे हैं और लैपटाप के कुछ नए संस्करण रिमोट कंट्रोल से चलते हैं। रिमोट कंट्रोल का आविष्कार 1898 में निकोला टेसला ने किया था और उस वक्त इसका नाम 'मेथड आफ एन एपरेटस फार कंट्रोलिंग मकेनिज्म आफ मूविंग व्हीकल' दिया गया था। 1930 के दशक में कई रेडियो निर्माताओं ने अपने ऊंची कीमतों वाले माडल्स के लिए रिमोट कंट्रोल की पेशकश की, जिनमें अधिकांश तार के माध्यम से रेडियो सेट से जुड़े होते थे। टेलीविजन में रिमोट का प्रयोग पहली बार जेनिथ रेडियो कारपोरेशन ने 1950 में किया। यह टीवी से एक तार से जुड़ा होता था। वायरलेस रिमोट कंट्रोल का आविष्कार 1955 में हुआ। रिमोट कंट्रोल न सिर्फ टीवी, डीवीडी, कंप्यूटर बल्कि विमान उड़ाने में भी इस्तेमाल हो रहा है। पाकिस्तान के अशांत पश्चिमोत्तर प्रांत में आतंक के खिलाफ लड़ाई में अमेरिका रिमोट संचालित मानव रहित विमानों का खूब इस्तेमाल कर रहा है। अब तो बिजली की क्षति रोकने और खपत पर भी रिमोट से नजर रखने की प्रणाली शुरू हो रही है। दक्षिण हरियाणा विद्युत वितरण निगम एडवांस मीटरिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रणाली शुरू कर रहा है, जिसमें एडवांस मीटर सिस्टम होगा और यह रिमोट कंट्रोल से नियंत्रित होगा। तो आप के ज्ञान को बढ़ाने के लिये ये ऐसी जानकारी मै आपको दे रहा हूं जिसके बारे में आपने शायद ही कभी सोचा होगा क्यों सही कहा न....(नोट-ये जानकारी भी मुझे कहीं से प्राप्त हुई है)

अरे सर....खुले नहीं है.. टॉफी ले लो

मंगलवार, जून 23, 2009


हमारे एक ब्लागर साथी है आदर्श राठौड़। अपने ब्लाग प्याला पर लिखते है। उन्होंने अपने एक पोस्ट में उन्होंने बस वालों को दिन में एक -एक रुपये की चोरी करते हुए देख कर अपनी बात कही... मैने सोचा की क्यों न मै भी अपनी एक मज़ेदार वृत्तांत लिखुं जिसमें शायद पढने वाले को मज़ा आये। हुआ यूं कि जैसे हर कोई शाम के समय अक्सर घरों से घूमने निकल पड़ते उसी तरह मै भी अपनी शाम की चहल पहल के लिए निकल पड़ा। बाज़ारों से होकर गुजर रहा था कि मुझे याद आया कि मेरी दवाईयों का स्टाक खत्म होने की कगार पर पहुंच गया है। आपको बता दूं कि मै अपने पास दवाइयों की पूरी दुकान रखता हूं क्योंकि हो सकता है कभी भी उसकी जरुरत पड़ जाये। अक्सर मै ये दवाइयां लगभग एक ही दुकान से लेता हूं क्योंकि घर के पास हैं औऱ मिल भी आसानी से जाती है। लेकिन अक्सर वो मुझे दो या तीन रुपये के नाम पर टॉफियां दे देता था। मै भी टॉफी का अच्छा खासा शौकीन हूं इसीलिये मेरी दोस्ती शहर के कई डेंटिस्ट से है। और मै आपको बता दूं कि मुझे डिस्काउंट तक मिल जाता है। ऐसे ही एक दिन डॉक्टर ने कड़े अंदाज में कहा कि अगर आपने टॉफी खाना बंद नहीं किया तो सारे दांतों का अंतिम संस्कार करना पड़ेगा। मै मान गया। मैने अगले दिन दवाइयां लेने दुकान पर पहुंचा इस बार फिर हर बार कि तरह दुकान वाले ने मुझे टॉफी थमा दी मैने मन मारकर मना कर दिया। लेकिन उसने मुझसे कहा कि सर खुले नहीं है तो ले लीजिये। मैने उसके ट्रंक में सिक्के देख लिये थे। पर मैने कहा कि कोई बात नहीं बाद में दे देना पैसे। उसने मना कर दिया..कहने लगा कि टॉफी ही लीजिए। मैने कहा यार टॉफी मै अब नहीं खाता तो मुझे मेरे पांच रुपये दे दो। उसने टॉफी दे दी। मै वो लेकर आ गया घर आकर मैने सोचा कि दिन भर कि कमाई करने के बाद उसके पास इतने सिक्के भी नहीं थे लेकिन मैने फिर सोचा कि टॉफी के बहाने वो हर बार मुझे टॉफी लेने को मजबूर करता रहा या कहे कि मै अपने पैसे की टॉफी खरीद रहा था । और मै समझ रहा था कि उसके पास सिक्के नहीं होते इसलिए वो मुझे टॉफी देता था। इस बार मुझे उसकी चालाकी समझ में आ गई तो मैने उसकी चालाकी के लिए उसे सबक सिखाने की ठानी। मैने उसके दुकान हर बार की तरह दवाइयां लेता और वो मुझे टॉफी देता और मै सभी टॉफियों को इकट्ठा करना शुरु कर दिया तो एक दिन जब मै उसके दुकान पर गया तो उसने मुझसे दवाई के बदले पैसे मांगे चूंकी मेरी दवाई की कीमत 65 रुपये है मैने उसे 40 रुपये थमाए अब उसे इंतजार था कि मै बाकी पैसे दूंगा मैन अपने बैग से खूब सारी टॉफियां निकाली और लगभग पच्चीस रुपये की टॉफियां उसके टेबल पर पटक मारी। उसने मुझसे कहा कि भाई साहब बाकी पैसे.... मैने कहा कि दे तो दिये। ये लो बाकी पैसे की टॉफियां। उसने कहा कि क्यों मज़ाक कर रहे हो सर। क्योंकि मै एक पत्रकार हूं तो ज्यादा तेज आवाज़ या बद्तमीज़ी से बोल नहीं सकता था। इसलिए उसने मुझे घूरकर देखा..मैने उससे कहा कि क्यों ..जब आप पैसे के बदले टॉफी दे सकते हो तो मै भी पैसे के बदले टॉफियां दे रहा हूं तो क्या गलत है। रखों और खूब खाओ....या औरों को दे देना....इतना कहकर मै वापस आने लगा और वो मेरे मुंह को देखता रह गया। वहां ज्यादातर लोग मेरी इस हरकत को गौर से देख रहे थे कुछ मज़ा ले रहे कुछ हंस रहे थे। शायद दुकानवाले की समझ में कुछ तो आया होगा।

कोई जीते ना जीते.. पाकिस्तान नहीं जीतना चाहिए !

रविवार, जून 21, 2009


मै अपने नाई की दुकान पर बैठा था कि पता चला कि ट्वेंटी-20 वर्ल्ड कप का फाइनल श्रीलंका और पाकिस्तान की टीमों के बीच में हो रहा, तभी मेरी दाढ़ी बना रहा नाई बोला देखना भाई साहब ये मैच पाकिस्तान ही जीतेगा... मैने कहा क्यों? कहता है वो लोग अच्छा खेल रहे हैं... तो मैने कहा तो श्रीलंका भी तो फाइनल में पहुंची है तो हो सकता है कि श्री लंका ही जीत जाए.... चेहरे को सख्त करते हुए उसने कहा नहीं भाई साहब पाकिस्तान ही जीतना चाहिए। उसके अंदर के गुस्से और चाहत के आक्रोश को देखकर लगा कि मुझे अब चुप हो जाना चाहिए। उस वक्त मेरी गर्दन उसका उस्तरा उसके हिसाब से चल रहा था कुछ भी हो सकता था हाहाहहा....लेकिन अपनी बारी की इंतजार कर रहे एक महाशय से न रहा गया वो बोल पड़े कि नहीं भाई कोई जीते न जीते पाकिस्तान नहीं जीतना चाहिए। बस इतना कहना था कि एक नई बहस की शुरुआत हुई और मुझे मुद्दा मिल गया कुछ लिखने का....मैं बड़े ही ध्यान से उन दोनों के पाकिस्तान के विरोध और पक्ष की बातें सुन रहा था। उन महाशय जिनका नाम सुरेंद्र था उन्होंने कहा कि भाई साहब पाकिस्तान नहीं जीतना चाहिए ...मेरे नाई ने कहा नहीं भाई आपने गलत कहा पाकिस्तान जीते तो ही अच्छा है। इतने में सुरेद्र जी बोले कि क्यों भाई तुम पाकिस्तानी हो क्या जो पाकिस्तान की जीत चाहते हो। इस पर नाई बोला नहीं मै हिंदुस्तानी हूं खालिस ....लेकिन फाइनल में पाकिस्तान जीते तो ही बेहतर है। सुरेंद्र ने नई बहस छेड़ी उससे उसका नाम पूछा तो उसने अपनी नाम तारिक़ बताया । सुरेंद्र बोला  अच्छा तो इसलिए तुम चाहते हो कि पाकिस्तान जीते। तारिक समझ नहीं पाया उसने पूछा कि क्यों कैसे आपको लगा कि मै पाकिस्तान की टीम का जीत चाहूंगा। सुरेंद्र बोला तुम मुसलमान हो इसलिए पाकिस्तानी टीम का सपोर्ट कर रहे होगे। इस पर उसने अपनी पिछली बात दोहराई कि भाई साहब मैंने आपसे पहले भी कहा है कि मै एक खालिस भारतीय हूं। लेकिन मै फिर भी चाहता हूं कि पाकिस्तान जीते। सुरेंद्र बोला ...यार एक बात बताओ कि पाकिस्तान और भारत के बीच मैच जब होता है तब तुम किस टीम की जीत चाहते हो तारिक़ को खुद पर किया गया ये तीखा सवाल लगा और उसने जवाब दिया कि देखिए भारत औऱ पाकिस्तान के मैच पर पहली जीत मैं भारत की ही चाहता हूं लेकिन किसी और से जब पाकिस्तान का मैच होता है तो मैं चाहता हूं कि पाकिस्तान ही जीते। सुरेंद्र को बात समझ नहीं आई तो उसने पूछा कि तुम कह रहे हो कि भारत पाकिस्तान के मैच पर भारत की जीत चाहते हो लेकिन पाकिस्तान के किसी और मैच पर पाकिस्तान की जीत.. इस बात को समझाओ तो ज़रा। तारिक़ चुप हुआ और बोला कि भाई साहब पाकिस्तान तो आज़ादी के बाद बना है। आखिर वो भी तो छोटा भारत है लेकिन बस दो परिवारों में पड़ी दरार की वजह से गुस्से में अलग रहने चला गया है. अब वापस कब आयेगा इसका पता नहीं। लेकिन इस बात में सच्चाई हैं कि भारत मेरा देश मैं जिस परिवार (देश) का हिस्सा हूं पहला हक़ उसका है। जिस तरह अलग हुआ परिवार यूं तो अलग होता हैं लेकिन अगर किसी भी हिस्से पर कोई मुसीबत आती है तो सब एक होकर खड़े हो जाते हैं । उसी तरह मैं भारत और पाकिस्तान को एक परिवार की तरह मानता हूं जो अलग तो हो गये हैं लेकिन हैं तो एक ही परिवार के। ये जवाब सुनकर वहां खड़े सभी लोग सन्न रह गये इस जवाब की मुझे भी कम ही उम्मीद थी। इतने में सुरेंद्र में उसके कंधे पर हाथ रखा और बोला चल यार मेरे बाल भी काट दे कल कितने बजे से है मैच... मैं भी देखने आऊंगा चाहता हूं अपने परिवार ही जीते।

कोई भारतीय नहीं..सब प्रादेशिक हैं ?

शनिवार, जून 20, 2009

फिर उठ रहा है गर्मा गरम मुद्दा उत्तर भारतीय और मराठी का...शिवसेना का शिव बड़ापाव हो या कांग्रेस का पोहा..सब किसी न किसी को कुछ न कुछ खिलाने की कोशिश कर रहे हैं। राजनीति का गंदे खेल को छोड़ दें तो मुद्दा कुछ खिलाने का नहीं हैं ..यहां मुद्दा मराठी मानुष को काम देने का है। लेकिन इस पर भी राजनीति शुरु हो गई हैं। मराठी और उत्तर भारतीयों के मुद्दे पर बहस तो बहुत हुई लेकिन सार कभी कुछ नहीं निकला। मै आज फिर इस मुद्दे पर एक नई बहस को जन्म दे रहा हूं कि आखिर मराठी मानुष को उत्तर भारतीयों से इतनी चिढ़ क्यों है। और वो कौन से मुद्दे हैं जिन पर बहुत सी नई पार्टियां शुरु हुई हैं। चाहे वो सालों से मराठी मानुष को आगे लाने के लिए बनी शिवसेना हो या महाराष्ट्र नव निर्माण सेना। क्यों मराठी लोगों को ऐसा लगता है कि उत्तर भारतीय उनके काम को छीनते हैं। यहां पर एक बात तो माननी होगी कि यूं तो मेरे साथ कई मराठी लोग काम करते हैं मेरे आस पास रहते हैं उनको इस बात से कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि महाराष्ट्र में उत्तर भारतीय काम करें या न करें। ये बात तो निर्भर करती है कि काम पर रखने वाले किन लोगों को रखते हैं और किसको नहीं। मै एक साफ सुथरी बहस चाहता हूं इस मुद्दे पर कि मराठी लोगों को अपनी असुरक्षा का भाव कहां औऱ क्यों आता है। सिर्फ महाराष्ट्र में भी बहुत से उत्तर भारतीय काम करते हैं औऱ कई लोग तो ऐसे हो जिनके पूर्वज शायद उत्तर भारतीय थे लेकिन वो नहीं है क्यों उनका जन्म वहीं के किसी अस्पताल में हुआ है। मेरे घर के ऊपर वाले मकान में एक महाराष्ट्रियन परिवार रहता था जब तक वो रहे हमारे उनके अच्छे संबध रहे पर जब मनसे के कार्यकर्ताओं का कहर उत्तर भारतीयों पर शुरु हुआ तो मैने उनसे इस मुद्दे पर व्यापक बातचीत की असल में मै वहां के आम आदमी की सोच को जानना चाहता था। उन्होंने जो मुझे बताया उसके मुताबिक महाराष्ट्र में लोगों को ये फर्क नहीं पड़ता कि कौन उत्तर भारतीय है कौन नहीं ...पर दिक्कत तब आती है जब वहां पर काम देने वाली फर्म उत्तर भारतीयों को सस्ते लेबर की वजह काम देना ज्यादा पसंद करता हैं क्योंकि इसमें उन्हे मुनाफ़ा ज्यादा मिलता है... और लागत कम लगती है। इसी वजह से वहां के मराठी लोगों में इस बात से आक्रोश बढ़ गया। उन्हें लगा कि बाहर से लोग आ रहे हैं उन्हें काम मिल रहा है पर उन्हें नहीं। यहां समझने वाली बात ये है कि इस तरह की रणनीति हर फर्म करती है चाहे वो महाराष्ट्र हो या दिल्ली..यहां भी अगर कोई फर्म अपना कारखाना लगाती है तो कोशिश करती है कि लोकल लोगों को कम से कम काम पर रखा जाये इसका कारण होता कि लोकल होने की वजह से उनकी धाक जमी रहती है और इस वजह से अपर हैंड का काम करता लोकल होना। यहीं कारण है कि वो बाहर से आये हुए कर्मचारियों को ज्यादा अग्रणी रखती है। इसमें उनका सस्ता लेबर भी एक प्लस प्वाइंट की तरह काम करता है। एक मानसिकता इस पूरे बबाल के पीछे है वो ये कि अगर हमारे प्रदेश में कोई फैक्ट्री लगती है तो ज्यादा से ज्यादा लोग ये सोचते हैं कि अब यहां के लोगों को काम मिलेगा ...उस वक्त इस ख्याल पर बात नहीं होती कि बहुत से लोगों को काम मिलेगा। इसी वजह से जो लोग बाहर से आते उन लोगों को वहां के स्थानीय लोगों के आक्रोश से रुबरु होना पड़ता है। यही बात महाराष्ट्र पर लागू होती है  इसी वजह से वहां के लोगों को उत्तर भारतीयों से चिढ़ होती है। या ये कहें कि उन्हें हर उस व्यक्ति से परेशानी होती है जो महाराष्ट्र से बाहर के होते हैं। अपने पड़ोस में रहने वालों से मैने ये भी पूछा कि तो फिर सिर्फ उत्तर भारतीयों को क्यों निशाना बनाया जा रहा है। तो उन्होंने कहा कि उत्तर भारतीयों को नहीं ग़ैर मराठी को निशान बनाया जा रहा है। क्योंकि महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों की संख्या ज्यादा है इसलिए ज्यादा से ज्यादा निशाना उत्तर भारतीय बन रहे हैं। जबकि सच ये है कि वहां पर रह रहे सभी ग़ैर मराठी लोग निशाना बन रहे हैं आक्रोशित लोगों का शिकार बन रहे हैं।

क्या है धार्मिक उन्माद....कौन है कट्टर..

गुरुवार, जून 18, 2009


मुझसे किसी न सवाल किया कि धार्मिक उन्माद क्या है..असल में उन्होने सवाल किया कि उनके कौन से लेख से मुझे लगा कि उन्होने धार्मिक उन्माद फैलाने कि कोशिश की है...
यहां तक की मुझे तो किसी ने आऱ एस एस का कार्यकर्ता ही घोषित कर दिया...लेकिन मै पूछना चाहता हूं कि अगर कोई अपने ब्लाग पर सिर्फ धर्म से जुड़े मुद्दों के बारे में लिखे तो उसे आप क्या कहेंगे...कुछ लोग उसे कहेंग कि वो धार्मिक कट्टर है पर मै इस बात को नकार देता हूं उस वक्त मेरी नज़र में वो ठीक है और बिलकुल एक आम आदमी की तरह आपने धर्म से जुड़ी बातें करता है और कुछ नहीं....लेकिन दिक्कत उस वक्त शुरु हो जाती है जब वो शख्स ये कहने लगे कि मेरे धर्म में जो लिखा है उसके हिसाब से अगर कोई रहने लगे तो समाज सुधर जाएगा..और वही आदमी दूसरे धर्मों के विषय में गलत बातें लिखने लगे और कहे कि ये सच है तो....उस वक्त मेरे विचार से ये गलत होगा....क्यों आपके धर्म में जो बातें लिखी है वो ठीक होंगी सच होंगी इसका मतलब ये तो नहीं कि जो बातें आपके धर्मिक पुस्तकों में लिखीं हो वो ही सही हैं और दूसरों की पुस्तकों में जो लिखा है वो गलत...बेशक आप व्याख्यानों के महारथी हों...किसी पेड़ को देखकर कल्पवृक्ष की संज्ञा तक देकर उसका व्याख्यान करें लेकिन इस वक्त आप धार्मिक उन्मादी की श्रेणी में आ जायेंगे..क्यों कि उस वक्त आप तो अपने धर्म की अच्छी बातों को नहीं कह रहे होते है दूसरे के धर्म को गलत ठहराने में व्यस्त होते हैं...आप जो लिखें ठीक लिखें अपने से मतलब रखें किसी और को गलत न कहें खासकर धर्म से जुड़े मसायल पर क्योंकि धर्म कुछ नहीं होता...होता है जीवन जीने के तरीका या ढंग जिसका निर्माण हमारे पूर्वजों ने हमारे लिए किया ताकि हम इस जीवन को सलीके से जिंए न की दूसरे को गलत ठहराकर खुद को ज्यादा अच्छा दिखायें....ये बात सभी धर्मों पर लागू होती है.... इन बातों को किसी भी धर्म के अनुयायी अपना सकते हैं...धर्म धर्म करते रहते हैं कभी ये भी कहा है कि क्यों भाई साहब कहीं मेरे इस काम आपकों कोई परेशानी तो नहीं हो रही है...ये बात ठीक है कि किसी के कहने पर आप कुछ बदल नहीं सकते औऱ बदलना भी नहीं चाहिए पर समझना तो चाहिए....मेरे इस लेख हो सकता है कि आपके समझ में आया हो जिसको समझाने के लिए मैने इतना समय दिया इस लेख को बात को समझे...धर्म कुछ नहीं मात्र एक जीवनशैली है

कैसे दूर होगा रैगिंग का कैंसर

बुधवार, जून 17, 2009


रैगिंग का सांप जिस तरह से हर साल कई छात्रों को हर साल निगलता जाता है उसे देखकर लगता कि कब इससे निजात मिल पायेगी। हर साल कई बच्चे इसकी वजह से आत्महत्या करने जैसा बड़ा कदम उठा लेते हैं। रैगिंग को रोकने के लिए देश की सबसे बड़ी ताकत सुप्रीम कोर्ट ने भी कई तरह के कड़े कानून बनाये है लेकिन हर बार ये कानून फ़ेल होते किसी काम नहीं आते है। इसका उदाहरण दूंगा उस वक्त का जिसको मैने देखा है झेला है.....जब मै अपने कॉलेज में पढ़ा करता था तो उस वक्त भी रैगिंग के मामले सामने आते थे। मै जब पहली बार कालेज में कदम रखा तो उस वक्त भी मेरी रैगिंग हुई थी। मै और मेरा दोस्त कॉलेज के गेट पर पहुंच भी नहीं पाये थे कि हमें आवाज आई कि ऐ फ्रेशर इधर आओ। हम दोनों का अंदाजा तो हो गया कि अब तो गये बेटा...हम दोनों वहां पहुंचे वहां पहुचते ही सबसे पहले उन्होने हमसे हमारा नाम पूछा उसके बाद कहा कि नाच कर दिखाओ बीच सड़क पर हमें नाचना पड़ा क्या करते अंजान शहर अंजान लोग इसलिए हमने नाचकर दिखाया लेकिन बात आगे बढ़ती कि कॉलेज की ही रैगिंग टीम आ गई और हमारे जान में जान आई। लेकिन सिलसिला यहीं ख़त्म नहीं हुआ था... ये तो सिर्फ शुरुआत थी। अब तो जो कोई सीनियर मिलता वो कुछ न कुछ करने को कहता कोई नचाता तो कोई गाने गवाता लेकिन खतरा तो तब और बढ़ जाता जब हर कॉलेज की तरह यहां भी गुंडे टाइप के लोग आ जाते हैं और उनसे हर कोई डरता है चाहे टीचर हो या मैनेजमेंट क्योंकि इनमें ज्यादातर उन लोगों बच्चे होते है जो या तो मंत्री के लड़के होते है किसी आईएएस के.... उस वक्त आप तो समझो गये। मेरे साथ भी ऐसा हुआ। एक बात और कि इस टाइप के बदमाश लड़के सूनसान जगहों पर ही आपको जाने को कहेंगे क्यों कि वहां न मानने पर मारने पीटने की आज़ादी जो होती है। मुझे भी सूनसान जगह देखकर ले जाया गया सबसे पहले मुझसे मेरा नाम पूछा गया और रहने का स्थान...रहने का स्थान इसलिए पूछा जाता है क्यों कि इसी बहाने पता तो लगे कि कहां रहता है या रहती है। मैने बता दिया कि मुज़फ्फरनगर.... शहर की नाम सुनकर एक बार तो लड़के कुछ सोच में पड़ गये शायद इस वजह से कि मेरे शहर का इतिहास ज़रा सा खराब है...लेकिन आगे कोई मांग बढ़ती कि तभी उनमें से एक लड़के ने आवाज लगाई कि ओए...लड़की.......देख लड़की आ रही है.....एक लड़की पर उनकी नज़र पड़ गयी जो बचते बचाते वहां से निकल रही थी। पता नहीं मेरी किस्मत अच्छी थी या उसकी किस्मत खराब कि उन बदमाश लड़कों ने मुझे तो छोड़ दिया पर उस लड़की को पकड़ने चले गये। मैं तो अपनी जान छुड़ाकर भागा लेकिन थोड़ी दूर जाकर ख्याल आया कि क्यों न जाकर देखू कि कहीं उस लड़की वो बदमाश लड़के ज्यादा परेशान तो नहीं कर रहे हैं। मैने तुरंत खुद न जाकर कॉलेज के लोगों को सूचित किया। तब वो लोग उसे बचाने या कहें कि उसे छुड़ाने वहां गये। जब वो वापस आई तो उसके आंखों में आँसूं थे।...उसके आंसू से आप सहज ही अंदाजा ही लगा सकते हैं कि उस बेचारी के साथ क्या हुआ होगा....उस घटना के बाद कॉलेज मे बबाल हुआ लेकिन मैनेजमेंट लाचार था लेकिन हिम्मत की दात देता हूं उस लड़की की कि उसने पुलिस में शिकायत दर्ज कराई लेकिन जैसा मैनेजमेंट ने किया था कुछ न करके..... उसी तरह पुलिस ने भी कुछ न किया क्यों उनमें से सभी उच्च अधिकारियों के लड़के थे और इसी वजह से मामला दबता चला गया उस दिन के बाद से उस लड़की को रोज देखता था क्यों कि मुझे लगा कि आखिर कैसे ये लड़की इतना सहने के बाद भी कॉलेज में आ रही है और उन बदमाशों को भी देखता था क्योंकि वो हमेशा की तरह किसी न किसी लड़की को रोककर रैगिंग के नाम अभद्रता कर रहे होते थे और कॉलेज मामले को शांत करता नजर आता था और ऐसा चलता रहा अगले तीन साल तक जब तक मै उस कॉलेज में पढ़ा।

हां ये नस्लीय की हिंसा है!...भारतीय सावधान

मंगलवार, जून 16, 2009


ऑस्ट्रेलिया.... इस देश का नाम आते सबसे पहले हमारे दिमाग में जो तस्वीर उभर कर आती है वो है वहां की क्रिकेट टीम...बेहतरीन खेल से वहां के खिलाड़ियों ने क्रिकेट की दुनिया में अपना खौफ़ कायम कर रखा था। लेकिन आजकल इस देश की चर्चा वहां के खिलाड़ियों के बेहतरीन खेल की वजह से नहीं बल्कि वहां पर हो रही हिंसा की वजह से हो रही है। ये हिंसा एक आम हिंसा नहीं है और न तो हो सकती है। इस हिंसा का शिकार हो रहे सिर्फ भारतीय। कभी तो वो छात्र होते हैं तो कभी वहां पर काम करने वाले आम भारतीय....पिछले कुछ महीनो पर नज़र डालें तो हम पायेंगे कि किस तरह से वहां पर हिंसा का दौर रुक नहीं रहा है औऱ जिसका शिकार भारतीय छात्र हो रहे हैं। इन हमलों में वहां की सरकार तो इस आम लूट पाट के लिए होने वाला हमला बता रही है पर असल में ऐसा है नहीं। वहां पर पिछले चालीस सालों से ज्यादा समय से भारतीय रह रहे हैं और वहां हमेशा से ही भारतीयों को अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता था। न सिर्फ भारतीय बल्कि वो देश जो विकासशील थे या ये कहें कि ऑस्ट्रेलिया के मुकाबले कम अमीर थे। उस वक्त यहां के लोगों में भारतीयों या यहां के लोगों प्रति कोई गलत भावना नहीं थी क्यों जिस तरह कम पैसे वाले या बेहाल को देखकर हम उनपर दया दिखाते हैं लेकिन जब वो हमसे आगे निकलने लगते है उस वक्त हमें जलन होती है उसी तरह जबा ऑस्ट्रेलिया में भारतीयों का वर्चस्व बढ़ने लगा या कहें कि भारतीय पैसों के मुकाबले और अमीर होने लगे तो वहां के निवासियों को ये गवांरा नहीं हो रही है। यहीं कारण है कि वहां रह रहे 7 हज़ार टैक्सी चालकों में से साढ़े पांच हज़ार सिर्फ भारतीय ड्राइवर हैं और उन पर हमले के मामले कम होते हैं लेकिन पढ़े लिखे सभ्य़ और आर्थिक रुप से मजबूत भारतीयों या छात्रों पर लगातार हमलें हो रहे हैं। ऑस्ट्रेलिया के बारे आप वहां के खिलाड़ियों के बर्ताव से पता लगा सकते है कि कभी भी इंग्लैड और साउथ अफ्रीका या बड़े देशों के खिलाड़ियों से उनकी झड़पें कम होती थी लेकिन भारतीय, श्रीलंका, पाकिस्तान जैसे देशों से उनका बर्ताव मैदान पर भी दिख जाता है...भारतीय खिलाड़ियों से उनकी झड़पें तो कई बार सुर्खियां भी बटोर चुकी हैं। वहीं बांग्लादेश जैसे देशों से उनकी झड़पों की ख़बर नहीं आती है..क्यों? ...इसकी जवाब है कि ये देश उनकी वर्चस्व को चुनौती देती नहीं दिखती हैं। भारतीय खिलाड़ियों से उनके दुश्मनी का कारण यही है कि क्यों कि भारतीय उनके वर्चस्व को चुनौती देते थे। इसका सबसे चर्चित उदाहरण है आई पी एल में जब कोलकाता नाइट राइडर्स के खिलाड़ी अजीत अगरकर को की गई नस्लीय टिप्पणी जिसमें ऑस्ट्रेलियन कोच ने किस तरह उनसे कहा था कि ....तुम भारतीय वहीं करो जैसा कहा जाये... इस बात से सहज़ ही अंदाजा लग जाता है कि किस तरह गुलाम रखने की मानसिकता के साथ के पले ऑस्ट्रेलिया के लोग भारतीयों को अपने से नीचे समझते हैं और जब उनको इसकी चुनौती मिलती है तो इस तरह कि नस्लीय हिंसा समाने आती है। और ये हिंसा कई सालों से आ रही जब से भारत आर्थिक रुप से प्रगति कर रहा है। और एक बात औऱ कि ये हालात सिर्फ ऑस्ट्रेलिया में नहीं है सभी जगह शुरु होने वाले हैं क्यों कि सभी जगह आर्थिक मंदी है और भारतीयों के इसकी फिक्र नहीं हो क्यों भारत में इसका ज्यादा असर देखने में नहीं आया है। इसलिये इसका समाधान कुछ नहीं है कोई भी सरकार इसका हल नहीं निकाल सकती है। क्यों कि इस सोच का हल नहीं है। हां एक चीज है जो हो सकती है और वो ये कि सभी भारतीय एकजुट होकर रहें औऱ सभी घटनाओं का मुंहतोड़ जवाब दें.....

ये कैसा बदनाम प्यार ?

इतने दिनों से प्यार में पड़े पागल प्रेमी जो कल तक एक दूसरे को फूटी आंख नहीं भाते थे आज एक दूसरे के लिए प्यार की मिसाल बता रहे हैं । मै बात कर रहा हूं। चंद्र मोहन उर्फ चांद मोहम्मद औऱ अनुराधा बाली उर्फ फ़िज़ा
की जो कुछ महीने पहले ही प्यार के पता नहीं कौन कौन सी कसमें छोड़ी हो जो न खायी हो उसके बाद दोनों के बीच बढ़ी दूरियों के बारे मे कौन नहीं जानता । फिजा की बात तो बडी ही मज़ेदार है। पहले इतना रोई की लगा कि अब तो धोखा खाकर अक्ल खुल गई होगी लेकिन  पिछले दिनो जब चांद मोहम्मद वापस आ गये तो तो जैसे प्रेम को फिर कोई पंख लग गये हों। एक बात समझ नहीं आती की मियां ये कि जब आप दोनो की पहले विवाह हो चुका था तो प्रेम की पींगे क्यों बढ़ाई? अपनी और साथ ही साथ प्रेम शब्द को इन दोनों ने इतना दागदार कर दिया है कि प्रेम एक पवित्र रिश्ता न होकर मात्र जिस्मों के मिलन का एक बहाना मात्र हो गया है। चांद मोहम्मद जो कि मेरे ख्याल से मे 50 की उम्र को पार कर चुके होंगे ने कहा है कि वो फिजा़ से नहीं मिल रहे थे क्यों कि उन्हे भड़काया गया था। अरे रे मेरे भड़काउ शेर जब मौज लेनी हुई तो वापस आ गये जब जी भर गया तो फिर वापस भड़का जाओंगे क्यो मोहम्मद साहब आपकी नजर में मौज लेना प्रेम है क्या? वैसे बात कुछ भी कहो कमाल का राजनीज्ञ है चंद्र मोहन जिसका तथाकथित प्रेम भड़का तो दूसरी शादी तक कर ली वो भी धर्म बदल कर औऱ साथ ही पहली को छोड़ भी दिया औऱ जब जी भरने सा लगा तो चल दिये विदेश दूसरी की तलाश मे अब कौन सा धर्म बदल रहे हो विदेशी मेम के चक्कर में कहीं क्रिस्चियन तो नहीं बन रहे हो। इन जैसे प्रेमियों की करतूतों की वजह से प्रेम जैसी पवित्र बंधन दूषित होता है कम से कम इन जिस्मानी प्रेम के भूखों को तो प्रेमी जोड़ो का नाम नहीं देना चाहिए नहीं तो प्रेम बदनाम होता है। इस फिज़ा को तो कौन कहे पता नही ये बेवकूफ है या बेवकूफ होने का नाटक करती है मीडिया मे इतने ड्रामे करने के बाद भी चंद्र मोहन के मोहनी सूरत में पड़ गयी यै इसे भी राजनीति का चस्का चढ़ा था जो अपना रास्ता साफ करने के लिए हरियाणा के पूर्व उप मुख्यमंत्री को चुन लिया की जैसे ही धोखा देने की बात होगी ड्रामा करुंगी और जैसे ही वापस आयेगा थक हारकर इज्जत बचाकर तो अपनाने का नाटक करके फिर अपनी गोटिया फिट करुंगी । चांद को जाने के बाद आपने देखा ही होगा कि किस तरह तथाकथित छली गई लड़की को अपनाने के लिए किस तरह लोग सामने आये थे । अब तो उन्हें भी शर्म आ रही होगी कि किन चक्करों में फंसा दिया इस लड़की ने......

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