ठंड की रातों में जहां एक ओर सभी नींद में दुबके हुए रजाई के आगोश में सो रहे थे। वहीं दूसरी तरफ मेरी आंखों में रात में पैसे कमाने का सपना जाग रहा था। अरे मै ही क्यों लगता तो ऐसा था कि ज्यादातर लोग जो अमीर बनने की तरफ अग्रसर हो रहे होते है। वो भी जागते है
मेरे बारे में
- शशांक शुक्ला
- नोएडा, उत्तर प्रदेश, India
- मन में कुछ बातें है जो रह रह कर हिलोरें मारती है ...
कुछ और लिखाड़...
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अबकी बार खुले में शौच पर वार8 वर्ष पहले
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NewsGram: News media from Chicago9 वर्ष पहले
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दुश्मन भगवान (अंतिम भाग)14 वर्ष पहले
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रात में पैसे लुट रहे है लूट लो ?
रविवार, जनवरी 31, 2010प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 6:36 pm 6 टिप्पणियाँ
लेबल: जागो रे
अरे कोई तो बचाओ हॉकी को....
मंगलवार, जनवरी 12, 2010अब अगर मेजबान देश के खिलाड़ी ही किसी टूर्नामेंट में भाग न ले रहे हो तो इससे ज्यादा शर्मनाक बात और क्या हो सकती है। आप, हम, और सबको पता है कि हमारा राष्ट्रीय खेल हॉकी है, लेकिन इसकी हालत राष्ट्रीयता जैसी ही हो गयी है। मध्धम बहुत मध्धम। हॉकी को पहले गिल ने चबाया अब जो बिना रस का लच्छा बचा है उसे हॉकी इंडिया के सदस्य चूसे जा रहे है। कुछ दिनों बात ही भारत में हॉकी विश्वकप होने जा रहा है। पहली बार जब ये जानकारी मिली तो बहुत आश्चर्य हुआ, वो इसलिये कि कमाल है कि विश्व कप जैसा बड़ा आयोजन हो रहा है और टीवी चैनल्स पर प्रचार तक नहीं आ रहे है।
प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 8:04 pm 7 टिप्पणियाँ
लेबल: खेल खिलाड़ी
ऑस्ट्रेलिया पर कब जागेगा हिंदुस्तान..
शनिवार, जनवरी 09, 2010
प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 9:39 pm 3 टिप्पणियाँ
लेबल: मुद्दा
हां वो तुम हो....
शुक्रवार, जनवरी 08, 2010प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 6:18 pm 5 टिप्पणियाँ
लेबल: कविता
थ्री इडियट्स का उद्देश्य क्या था?
बुधवार, जनवरी 06, 2010अब से आने वाली फिल्म के बारे में एक समीक्षक के तौर पर उसकी समीक्षा करके ये जानने की कोशिश करुंगा कि बॉलीवुड फिल्म और हॉलीवुड फिल्म में क्या खास अंतर होता है। कोशिश यही रहेगी कि ताज़ातरीन फिल्मों को देखने जाना चाहिये या नहीं।
फिल्म है ----थ्री इडियट्स
हर बार की तरह इस बार भी विधु विनोद चोपड़ा की एक और बेहतरीन डायरेक्टेड फिल्म है। विधु की एक खास बात है कि उनकी फिल्म में हर कैरेक्टर के पास करने को बहुत कुछ होता है। और वो जानते है कि कि किस कलाकार से कैसे और कितना काम लेना है। उनकी फिल्म में हर कलाकार के पास अपनी कला का नमूना पेश करने का पूरा मौका होता है।
फिल्म में सिनेमोटोग्राफी की बात करें तो फिल्म में लगभग हर तरह के सीन आजमाये गये है चाहे वो वादियां हो या फिर बारिश का मौसम, यहीं नहीं फिल्म के आखिरी हिस्से में आप फिल्म के कुछ सीन को इमरान स्टारर तुम मिले के हिस्से को ताजा करेंगी।
कलाकारों की बात करें तो फिल्म में करीना कपूर का रोल बेमानी ही था, लगता तो ऐसे ही है आमिर खान के साथ काम करने की इच्छा लेकर ही उन्होंने फिल्म साइन की थी। बोमन इरानी का रोल काफी बड़ा तो नहीं है लेकिन फिल्म में अपनी मजाकिया सख्त इमेज की झलक दिखलायी है। उनकी ये एक्टिंग देखकर 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' की याद ताज़ा हो गयी। जैसे की शीर्षक से लग रहा है कि फिल्म में तीन कलाकारों की एक्टिंग देखने को मिलेगी पर ऐसा कुछ भी नहीं है फिल्म में है तो थ्री इडियट्स लेकिन आमिर ही पूरी फिल्म में एकाधिकार दिखाते नजर आये है। ऐसा नहीं है कि फिल्म में शरमन जोशी और माधवन के लिये कुछ नहीं है लेकिन फिल्म के नाम से ऐसा कुछ भी नहीं है कि फिल्म तीनों के लिये बनी हो। शरमन ने अपने रोल के साथ न्याय किया है। अपनी एक्टिंग से उन्होने फिर साबित किया है कि वो एक मेच्योर एक्टर है। माधवन को अपनी एक्टिंग में अभी कुछ सीखना बाकी है क्योंकि उनके पास वैरायटी नहीं है।
फिल्म को जिस उद्देश्य़ के लिये बनाया गया, समझा जा रहा है असल में वैसा है नहीं। फिल्म कहीं से भी शिक्षा प्रणाली को झकझोरती नज़र नहीं आ रही है।
वैसे शिक्षा व्यवस्था पर लगभग चोट करती इस फिल्म में इजीनियरिंग कालेज में पढ़ने वाले छात्र हैं रणछोड़दास, फरहान, और राजू रस्तोगी। फरहान मिडिल क्लास लोगों का नेतृत्व करता है वहीं राजू एक निम्न मध्यमवर्गीय परिवार का है। रणछोडदास की बात करें जिसको रैंचो नाम से ही सब बुलाते हैं तो वो एक पैसे वाला लड़का है। लेकिन इंटरवल से पहले। तीनों दोस्त है, जो साथ ही पढते है, रहते है और मौज मस्ती करते है। लेकिन रैचो एक मस्तमौला लड़का है जो इंजीनियरिंग को जानकारी के तौर पर पढ़ता है। यहां पर स्टोरी में ट्विस्ट आता है कि एक दिन पढ़ाई खत्म करके रैचों कहीं चला जाता है। फरहान, राजू और फिल्म का तीसरा कॉमेडी केरेक्टर साइलेंसर, रैचों को ढूढने निकलते है।
फिल्म के संदेश को देखें तो फिल्म कई संदेश देती है जैसे पढाई को नंबरो के लिये नहीं काबिल होने के लिये करों। दूसरा जिसमें दिल करे उसी फील्ड को चुनों। इस तरह के संदेशों को लेकर बनी फिल्म में यही एक कमी है कि फिल्म के काबिल लोगों के लिये ही ये सारा कथानक चुना गया है। आमिर हर बार पहली पोजीशन पाते है लेकिन फरहान जो कि एक फोटोग्राफर बनना चाहते है वो आखिरी नंबर पर, वही राजू जो इंजीनियरिंग ही करना चाहता था वो भी आखिरी रैकिंग पर ही आता है।
हमेशा खास उद्देश्य को लेकर बनी फिल्म में ही काम करने वाले आमिर ने इस फिल्म में बेहतरीन काम किया है लेकिन स्क्रिप्ट में कुछ कमियां जैसे फिल्म का उद्देश्य साफ नहीं हुआ से मात खा रहे हैं। जो उद्देश्य साफ भी हुआ है वो पहले हाफ में ही क्लियर हो गया है जब आमिर ही कालेज टॉप करता है।
फिल्म की कहानी ठीक है लेकिन जैसा कि पहले कहा कि फिल्म कोई संदेश देती नज़र नहीं आ रही है। शिक्षा व्यवस्था पर जहां तक सवाल उठाने का सवाल है तो सवाल है लेकिन जवाब नज़र नहीं आ रहे हैं।
फिल्म के गाने अच्छे है। खासकर रेट्रो इफेक्ट द्वारा गानों को पुराने अंदाज में फिल्माया गया गाना। जिसका चलन आजकल बहुत हो रहा है। पढाई पर पढ़ने वाले प्रेशर, और टेंशन को दिखाने में फिल्म सफल रही है। फिल्म को देखने जाया जा सकता है लेकिन युवाओं के लिये पूर्णतया बनायी गयी फिल्म है।
मेरी ओर से फिल्म को
प्रस्तुतकर्ता शशांक शुक्ला पर 11:33 pm 5 टिप्पणियाँ
लेबल: फिल्म समीक्षा