इत्तेफाक से मै भी मीडिया से हूं, लेकिन इसकी ताकत का अंदाजा मुझे कभी नहीं हुआ। और अब तो बिलकुल नहीं होगा। कभी पढ़ा था कि जो पिटा नहीं वो पत्रकार नहीं। और ऐसा ही हुआ। बाल ठाकरे के खिलाफ खबर क्या चली कि उसके चमचे लाठी डंडे लेकर आईबीएन सेवन औऱ लोकमत के आफिस पर तोड़फोड़ करने पहुंच गये। कमाल तो ये है कि सभी राजनेता रह रह कर निंदा कर रहे है। मज़े की बात एक और कि निंदा करना बहुत मजे़दार होता है। निंदा में रस इतना है कि मत पूछो। रिक्शा चलाने वाला भी अमेरिका पर हुये हमलों पर निंदा कर सकता है। क्योंकि उसके अलावा वो कुछ कर भी नहीं सकता। रिक्शे वालों का तो समझ आता है लेकिन मुंबई के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण, हो या हमारे प्रधानमंत्री, उनके ये कहने से कि ये गलत है क्या हो जाता है। सीधी भाषा में कहें कि क्या उखाड़ लेते है ये। सच तो ये है कि मीडिया के सामने ये भले ही मीडिया वालों से प्यार की बातें करे, कार्रवाई की बातें करें, लेकिन सच में मन ही मन बहुत खुश होंगे। इसलिये अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई औऱ सच मानिये होगी भी नहीं, क्योंकि मुंबई में सबसे बड़ा गुंडा है बाल ठाकरे । पिछली बार जब एक और चैनल के दफ्तर में तोड़फोड़ हुई थी तब क्या कर लिया था, निंदा तो तब भी की थी। क्या उखाड़ लिया।
रही बात मीडिया की तो आज के चैनल पंगु हो चले हैं। मेरी कोई औकात नहीं है इतने बड़े पत्रकारों पर सवाल उठाने की लेकिन बाल ठाकरे के खिलाफ क्यों नहीं एक मुहिम शुरु की जाती। क्या किसी चैनल पर हमले के बाद उस खबर पर दो दिन खबर दिखाने के बाद बंद कर देने से काफी हो जाता है। क्या फर्क पड़ जाता है। आजकल तो एक चैनल दूसरे चैनल पर हुए हमले पर कहता फिरता है कि चलो अच्छा हुआ। संजय राउत की क्या बात कहुं, वो खुद को संपादक कहते है, सवाल ये है कि सामना का संपादक क्या ऐसा आदमी होना ज़रुरी है कि वो चंद शब्दों को उलट पलट करना जानता हो बस, हो गई एडीटरगीरी। क्या समाचार पत्र के उसूल कुछ नहीं होते। पत्रकारिता के उसूल कोई मायने नहीं रखते। रहीं बात पत्रकारिता कि तो संजय राउत संपादक नहीं हो सकते, क्योंकि जो आदमी किसी दूसरे की कठपुतली हो वो पत्रकार तो हो नहीं सकता। कलम चलाना पत्रकारिता नहीं होती संजय जी। मकसद ही आदमी को पत्रकार बनाता है। बाल ठाकरे खुद एक संपादक है लेकिन उनके टाइप की संपादकी समझ से बाहर है। सामना का नाम मराठी रख दें तो बेहतर है क्योंकि जब बाल ठाकरे अपनी आलोचनाओं का सामना नहीं कर सकते है तो किस बात को पत्रकार है वो। मेरा पिछला आर्टिकल सही था।
जब बात दिल से लगा ली तब ही बन पाए गुरु
4 दिन पहले
10 टिप्पणियाँ:
यार कैसा डौन है ....घर से बाहर ही निकलता ,,,..मैंने तो सुना है ...अपने घर में तो ......ऐसा कुछ करके
अजय कुमार झा
अजय जी से सहमत
घर का कुत्ता भी भी अपने घर में डान होता है
यथार्थ लेखन।
मुझे लगता है हममें से अधिकतर यही करते हैं, दूसरों में कमी निकलना लेकिन जब बात अपनी ऊपर आती है तब हम भी वही करते हैं. आपने सच लिखा है और आशा करता हूँ कि सच कहते, लिखते और करते रहेंगे. शुभकामनाएं.
शशांक जी
आपके विचारों का सम्मान करता हूं
शशांक जी
आपके विचारों का सम्मान करता हूं
यूँ "सच" कहना आपका अच्छा लगा...
शुभकामनाएँ...
प्रभु....
सच के साथ रहें हमेशा
सही लिखा है भाई
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