रुचिका केस- पुलिस का घिनौना चेहरा

गुरुवार, दिसंबर 31, 2009


सभी लोग रुचिका के हत्यारे का नाम राठौड़ राठौड़ कर रहे है। लेकिन यही लोग तब कहां थे जब रुचिका जिंदा थी और वो इस राठौड़ के द्वारा सताई जा रही थी। मीडिया में तमाम चैनल दिन भर बस इसी कोशिश में है कि रुचिका की आत्महत्या के दोषी को सजा मिले। अरे कानून ने सजा तो दे दी है । हां ये बात अलग है की ये सजा़ नाकाफी है। छ महीने की सज़ा और उस पर भी कारावास नहीं दस मिनट मे मिल गयी ज़मानत। लो कर लो बात, राक्षसी हंसी लिये राठौड़ अपनी पहुंच की ताकत दिखाता हुआ आम आदमी और मृत रुचिका पर हंसता हुआ बाहर आ गया। ये जो लोग आज राठौड़ के खिलाफ खड़े हुये हैं असल में वो राठौड़ के खिलाफ नहीं खडे हुए है बल्कि वो उस सज़ा के खिलाफ खड़े हुये है जो रुचिका को आत्महत्या के लिए मजबूर करने वाले राठौड़ को मिली है। लेकिन सवाल ये है कि उसे कितनी सजा मिलेगी। दस साल, चौदह साल या फिर फांसी । फांसी को तो लगभग हम भूल ही जाये क्योंकि जिनको फांसी मिली है वो भी आज सरकारी खजाने से मजे में है। तो फांसी तो एक तरह से मजेदार फैसला हो गया है। पहले लोग फांसी नाम से डरते थे, लेकिन आज फांसी के नाम से खुश हो जाते है कि सोचते है कि चलो अब तो जिंदा रहने का सर्टिफिकेट मिल गया है। और जिस पुलिस आफसर ने सारे पुलिस प्रशासन को अपनी जेब में रखकर रुचिका के परिवार की ऐसी तैसी कर डाली उसको जेल में कितना कष्ट होगा इसका अंदाज़ा आप लगा सकते है मेरा मतलब है कि वहा भी उसको घर जैसा ही लगेगा। जो लोग आज रुचिका को इसाफ दिलवाने के लिये सड़को पर उतरे है और मीडिया जोर शोर से मामले को उठा रहा है शायद रुचिका को इंसाफ मिल जाये । दोषी वो लोग है जिन्होने रुचिका के भाई को पुलिस स्टेशन में रखकर उसकी पिटाई की और रुचिका को ऐसा कदम उठाने को मजबूर कर दिया। इसमें वो लोग भी दोषी है जो राठौड़ पर केस चलने के बाद भी उसको पावर दिये जा रहे थे। उसका प्रमौशन किया जा रहा था। और रुचिका और उसके परिवार के लिये और ज्यादा मुसीबत खड़ी की जा रही थी। इन मामलो पर लगाम लगाने के लिये जिस पुलिस व्यवस्था को बनाया गया है अगर वो ही भक्षक बन जाये तो क्या होता है इसका पता रुचिका के मामले से चल रहा है

देश में बात मनवाने का रास्ता सिर्फ हिंसा

गुरुवार, दिसंबर 24, 2009

जो लोग अखबार पढते है या जरा सा भी देश के प्रति जागरुक रहते है उनके दिमाग में ये सवाल पता नहीं कौंधा है या नहीं। पिछले साल राजस्थान में आरक्षण के लिये धमाचौकड़ी मची। काफी खून बहा और साथ ही सरकारी संपत्ति के नुकसान का अनुमान न ही लगाओ तो बेहतर है। क्योंकि इस मामले पर तो सुप्रीम कोर्ट भी गुर्जरों की कुछ नहीं उखाड़ पाया। मजेदार बात ये है कि इस मुद्दे ने वहा की सरकार को हिला दिया। लेकिन दुख की बात ये है कि गुर्जरों को आरक्षण मिल गया। दूसरो के कुछ भी सोचने से पहले मै बता दूं कि मै आरक्षण का पुरजोर विरोधी हूं क्या करुं जनरल कटैगरी में पैदा हुआ हूं इसलिये इसका गम झेलते हुए दुख होता है इसलिये बोलना मेरा अधिकार है। यहां बात हो रही है गांधी के उस देश की जहां बिना हिंसा के कोई काम नहीं होता है। चाहे गुर्जरों का आऱक्षण हो या तेलंगाना का मुद्दा।

केंद्र सरकार ने चंद्रशेखर राव और तेलंगाना समर्थकों को गजब की चालाकी से बेवकूफ बनाया। पहले तो मान गये बाद में नेताओं वाली फितरत दिखा कर अपना बयान वापस ले लिया। और मरते क्या न करते क्योंकि तेलंगाना राज्य का मुद्दा कांग्रेस सरकार के लिये गले की हड्डी बन गया है। तेलंगाना के लिये भी लोगों ने हिंसा का रास्ता ही अपनाया, तभी ये मामला सरकार की नज़रो में आया। ये अलग बात है कि दिखावे के लिये चंद्रशेखर राव ने भूख हड़ताल की थी लेकिन जब छात्रो ने हल्ला मचाना शुरु किया तभी सरकार के कानों पर जूं रेंगी है। अहिंसा के देश में आज हिंसा के बिना कुछ नहीं होता है। लेकिन गांधी का देश गांधा का देश कहत कहते हम नहीं चूकते है।

अब इसमें गलती किसकी है पता नहीं पर अब हर उस नेता को जिसको मुख्यमंत्री बनने का कीड़ा है वो उनके अंदर फिर से दौड़ेने लगेगा । मायावती भी उत्तर प्रदेश को तीन भागों में बांटने की तैयारी कर रही है अभी तक वो पूरे उत्तर प्रदेश को उत्तम प्रदेश बना रही थी मुर्ति बना बना कर। अब वो उत्तर प्रदेश को हरित और पूर्वाचल करने की तैयारी में है। हां ठीक ही है इसी बहाने मंत्रियों का संख्या बढ़ेगी। आम लोगों की जेब का पैसा भ्रष्ट नेताओं के स्विस खातों में जायेगा। और इमानदारी की आड़ में सारे काम हो जायेगे। प्रदेश के विकास के नाम पर करोड़ो रुपये आयेगे। और वो सीधे इटरनेट के ज़रुये स्विट्जरलैंड के टूर पर निकल जायेगे।

हाय रे देश
क्या होगा तेरा
नेताओं की शक्ल में
राक्षसों ने डाला डेरा

अब तो तेरा भगवान ही मालिक है

मंदी ने अमीरी कम कर दी है....

शुक्रवार, दिसंबर 18, 2009

मै समझ रहा था कि मंदी का असर उन लोगों पर पड़ा है जो बेचारे किसी फर्म में नौकरी किया करते है। क्योंकि जिनके पास पैसे है वो तो आज भी मंहगे से मंहगे कपड़े खरीद रहे है लेकिन वो लोग जो किसी की नौकरी किया करते है उन्हे ही सबसे ज्यादा फर्क पड़ा है। क्योंकि किसी की नौकरी गयी है तो किसी की सैलरी कम हो गयी है। मैने अपने किसी दोस्त से सुना की एक आदमी ने एक शो रूम से एक लाख रुपये के जूते खरीदे है और वो भी सिर्फ चार जो़ड़ी जूते। कमाल है बहुत पैसे है ऐसे लोगों के पास। लेकिन मैने ऐसे लोगों को भी देखा है जिनके पास पैसों की कमी हो गयी है।

मै एक दुकान पर कचौड़िया खाने जाता हूं। मेरा उस दुकान के साथ रिश्ता सा बन गया है क्योंकि उसकी कचौडियों के स्वाद के लिये मेरी जीभ लपलपाने लगती है। मै रोज़ाना ही उसकी दुकान पर जीभ की तृप्ति के लिये जाता हूं। मै अक्सर वहा पर तरह तरह के लोगों से मिलता हूं। ऐसे ही एक आदमी को मै अक्सर वहा देखता था जो मारुति के स्विफ्ट माडल के साथ वहा आता था। मेरी ही तरह उसकी जीभ भी उसे यहां खींच लाती थी। उसकी एक आदत थी कि दुकान के पास मौजूद भिखारियों को दस दस रुपये के नोट दे दिया करता था। और वो ऐसा रोज करता था। उसकी इस आदत की वजह से दुकान वाले ने भी उसको ऐसा न करने की सलाह दे चुका था क्योंकि उसे लगता था कि ऐसा करने से भिखारियों को बढ़ावा मिलता है। लेकिन पैसे की गर्मी ने महाशय को पैसे लुटाने को मजबूर सा कर दिया था। समय़ बीतता गया एक दिन वो अपनी लाल रंग की स्विफ्ट के बगैर आया और सिर्फ सिंगल कचौड़ी का आर्डर दिया और उसे ही खाने लगा। हर बार की तरह उसे देखकर बाल भिखारियों की भीड़ सी लग गयी। उसने उनकी तरफ देखा और फिर खाने में मस्त हो गया। भिखारियों को थोड़ा अजीब लगा तो उन्होने उस पर ज़ोर डालना शुरु कर दिया। थोड़ी देर के बाद कचौड़ी खत्म हुई और उसने दस रुपये का नोट निकाला और एक भिखारी को देते हुए बोला सब लोग बांट लेना। ये कहकर चला गया

दुकान वाला और मै एक दूसरे को देखकर मुस्कुराये क्योंकि थोड़ी देर पहले ही उसकी और मेरी मंदी के विषय पर ही बात हो रही थी और मै उससे पूछ रहा था कि उसकी खरीददारी पर कितना फर्क पड़ा है। ये देखने के बाद कि स्विफ्ट वाले आदमी ने सिर्फ एक दस का नोट ही दिया है भिखारियों में बहस सी छिड़ गयी कि अब दस रुपये को पांच में कैसे बांटा जाये। तभी उनमें से ही एक ने बोला यार अब तो परेशानी बढ़ गयी है इस मंदी ने तो लोगों की अमीरी कम कर दी है।

दवा पर टैक्स ?

रविवार, दिसंबर 06, 2009

इंकम टैक्स देने के बाद भी सरकार को सरकार बने रहने देने के लिये हम हर सामान पर टैक्स देते है। चाहे दंतमंजन हो या दूध। लेकिन ज़रुरत के सामानों पर टैक्स लगना गलत है। कमाल तो ये है कि दवाई पर भी टैक्स है। कम से कम गरीबों को एक चीज तो है खाने को कम से कम उस पर से तो टैक्स हटा लेना चाहिये। सरकार की टैक्स की नीति पर विचार करने की ज़रुरत है। लेकिन एक वही एक ऐसी चीज़ है जो हर बजट में बढ़ती है। टैक्स के मामले में सरकार हमेशा से ही अपने फायदे को देखती नज़र आयेगी। दिल्ली में तो हालत औऱ ज्यादा खराब हो रहे है, खबर है कि दिल्ली में एक सौ ग्यारह ज़रुरत की चीज़ों पर वैट को बढ़ाया जा रहा है। दुखद है कि इसमें दवाईयां भी शामिल है। सरकार की सुविधा, सुरक्षा और आराम में कटौती नहीं की जाती है। नेता आराम से होटलों में बिना पैसे दिये रहते है नेतागीरी दिखाते है, यहीं नहीं उनके बच्चे भी अपने बापों के दादागीरी की प्रथा को आगे बढ़ाते है। और अपने बाप के नाम पर दादागीरी दिखाते है। लेकिन सरकार टैक्स में कटौती नहीं करती है। दवा पर टैक्स तो शर्म की बात है । केद्र सरकार, और दिल्ली की सरकार को टैक्स में फेरबदल करना चाहिये कि कम से कम दवाओं पर तो टैक्स न रखा जाये।

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