क्या है कट्टरवादी सोच

गुरुवार, अप्रैल 30, 2009

कट्टरवाद ...क्या है ये कट्टरवाद....कौन है ये कट्टरवादी...इन सवालों ने मुझे बहुत परेशान कर रखा था...फिर मैने सोचा कि इन सवालों के जवाब के लिए मुझे अपने जीवन में झांकना होगा......क्योंकी जीवन के कई व्यवहारिक तजुर्बे कई सवालों के जवाब वो खुद ही दे देते है....आज से 10 साल पहले मैने अपने जीवन के कुछ पलों को याद किया...उसमें याद आया कि मै हिंदुवादी संगठन में जाया करता था...वहां पहले मुझे लगता था कि ये सब काफी मनोरंजक है.... मै वहां जाता था...वहां खेलकूद होता है मौज मस्ती होती है...ऐसे ही कुछ दिन बीत गये.....लगभग एक दो महीने बाद जब मै रेगुलर हो गया तो मुझसे मिलने एक दिन एक महाशय आये उन्होंने मुझसे बात की ...उन्होने मुझसे कहा कि मै संगठन में बतौर सक्रिय कार्यकर्ता शामिल हो जाऊं...पर मैने मना कर दिया मैने कहा कि मै संगठन में ही तो हूं तो अलग से क्या शामिल हो जाऊं...पर उन्होंने कहा कि नहीं... सिर्फ यहां आना ही हिंदुत्व नहीं है...मैने पहली बार हिंदुत्व नाम के शब्द को सुना था..मैने पूछा कि सर ये हिन्दुत्व क्या होता है...तो क्या थी उनकी परिभाषा मै आपको बताता हूं...
जो आपका धर्म है वो हिन्दु है और जो हिन्दू धर्म के लिए लड़ता है उसे हिन्दुत्व कहते हैं,
मैने पूछा, सर मुझे एक बात अभी भी समझ नहीं आया कि हिन्दु और हिन्दुत्व में क्या समानता है,
फिर उन्होने मुझे कहने लगे बेटा देश में खतरा बढ़ गया है मुसलमानों ने हम पर बहुत अत्याचार किये है इसी वजह से हमें अपने धर्म को बचाना है...
आखिर हमारे धर्म को किससे ख़तरा है,
मुसलमानो से ..क्यों कि वो नहीं चाहते कि हिन्दु जीयें...
लेकिन वो क्यों नहीं चाहते कि हम जियें....
क्यों कि मुसलमान कातिल होते है...और फिर उन्होने इतिहास का हवाला दिया....
मैने कहा पर सर अब तो राजा महाराजा शासनकाल खत्म हो गये हैं तो अब इन बातों का क्या औचित्य.
औचित्य है और वो ये कि वो आज भी हिन्दुओं के दुश्मन है..उनकी नज़र में हम काफिर हैं और इसलिए वो हमारे धर्म को खत्म करना चाहते हैं...
लेकिन मेरे तो बहुत से मुस्लिम दोस्त हैं उनसे ये बातें नहीं होती...वो तो मेरे अच्छे दोस्त हैं...
नहीं बेटा वो पहले दोस्ती करके आपसे मिलते हैं पर बाद में दग़ा देते हैं.....

इसी विषय पर करीब एक घंटे की चर्चा के बाद उन्होने मुझे पूरी तरह से संतुष्ट तो नहीं किया पर हां एक सोच में डाल गये की क्या सही होना चाहिए और क्या गलत....

एक सप्ताह बीत गये मै अपने मित्र के यहां गया जो एक मुस्लिम परिवार से ताल्लुक रखते हैं....मै पहुंचा पहले मेरी बात ठीक ठाक हुई पर थोड़ी देर बाद मुझे लगा जैसे वो मुझे नीचा दिखाने की कोशिश कर रहा है
मुझे इस बात पर यकीन होने लगा कि जो बातें मुझे बताई गई थी वो सही थीं...

कुछ समय और बीत गया...और फिर मेरे सामने जो सच्चाई सामने आई वो ये थी कि जिस तरह मुझे समझाने मेरे 'सर' आये थे उसी तरह मेरे मित्र को भी समझाने आये थे उनके मौलाना साहब...उसी तरह मुसलमान होने का मतलब और वही सब बता गये जिन बातों मेरे सर ने मुझे बताई थी.....

इन घटना से मुझे तो साफ हो गया कि किसी भी धर्म में कट्टरता नाम की कोई चीज़ नहीं होती...होती है तो बस वो अनावश्यक डर जो एक पीढी से दूसरी पीढी तक फैलाया जाता है...
और कोई भी उसकी पीछे की सच्चाई को जानने की कोशिश नहीं करता.....और यूं ही चलता रहता है....

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